Sunday, September 20, 2015

एक असमाप्त प्रेम-कथा

यह सत्य है कि हमने एक-एक कलियाँ गुलाब की लेकर
नहीं बाँधा था एक दूसरे को भुज-पाश में
नहीं गए मनाली, ऊटी या उटकमंड
नहीं धोये हमने क्षीर-धार से  शिलाखंड
नहीं गए अमृतसर, अजमेर या लोदी गार्डन
हुमायूं की कब्रगाह, पुराने किले या शाहजहानाबाद के पार
हमने नहीं कहा, तुम हो नाव, मैं हूँ पतवार
पर यह सत्य है, जाने किस मारीच के भय से
एक काली हिरणी बनकर
तुमने ही पाया था, पथ इस पंजर-कफस में

सहज है यह पृक्ति
क्योंकि, इस धरातल पर सहज नहीं, एक ‘शस्य-कथा’
प्रयति की सीमाएं नहीं, स्वार्थ के उपर
सवाल, वाग्जाल और उन्नत भाल लिए स्थापित हैं  
वही प्रतिमान, वही विक्षिप्त लिप्सा  
वही अदय, वही भग्न-मना, वही आखेटक
जिसके अधिक्रम 
यानि स्याह-द्युतियों के आवेशित आवेश
तुम्हें, अर्थात, काली हिरणी को छूते है
इसीलिए, और सिर्फ इसीलिए                            
कि सृष्टि की अद्भुत गाथाएं
वेदवती या नंदलाल की
सुखांत नहीं है

तो फिर क्यों इतने महाद्वीपों, महासागरों के पार
इस घने विपिन में,
मधुवात, रात, प्रभात के बाद
पुनः राग-भैरवी में यह अंतर्नाद
अर्थात, तोयकाम काली-हिरणी की आर्द्र-ध्वनि
किसलय, कुसुम, मरंद के मध्य अग्नि-स्फुलिंग
एक उत्पलाक्षी का परिक्लांत-मुखारविंद
एक प्रत्यक्ष वेणीसंहार
हर्ष और आह्लाद के बीच
सातत्य उसी अनुतर्ष का
जिसके लिए तुमने घाट-घाट के पानी पिए
अपने भाव-उद्रेक से आहत होकर
स्वर-ग्रंथियों को बाँधा
कि कोई कर्ण-कटु गीत महीन हवाओं के साथ
दूर नहीं जाए
कि तुम्हारी इसी व्यासक्ति पर सिद्ध मीमांसक
व्यक्त न करें वही, जो तुम्हे ग्राह्य नहीं
कहो पिंज-हृदयी!
तुमने कभी सुनी है अपने रग-रेशे की केन्द्रित झंकार?
तुमने कभी सोचा है?
‘शेली’ की नाव सागर में डूब गयी,
लेकिन उसकी कवितायें अथाह सागर सी क्यों हो गयी?

भान हो तुम्हे कि, अनुस्मृतियों के जीवन
जीवन की अनुस्मृतियों के बीच का यथार्थ
यही है, जीवन की दारुण-कथाएँ यही है
सुख भी यही है, व्यथाएं भी यही है
कि एक अरण्य होता है
काली हिरणी होती है
होते हैं बाघ, वायस, श्रृगाल
हिरणी चाहती है एक निर्गल-पथ
बाघ, वायस, श्रृगाल चाहते हैं नमकीन गोश्त
हिरणी जब अरण्य-रोदन करती है
तो बाघ, वायस, श्रृगाल उसे मधुर-गीत समझते हैं
वह बहुत दूंद मचाती है लेकिन
बहुत वर्षों के बाद समय की आंधियां आती है
अरण्य की समस्त चरता का अंत-काल आता है
पेड़ सूख जाते हैं
अरण्य में अग्नि का संचार होता है
उसका विस्तार होता है

फिर तुमने क्यों कहा
एक पथ के दो रास्ते होंगे अब?


(ओंकारनाथ मिश्र, पंचमढ़ी , २५ अगस्त २०१५)

Friday, September 11, 2015

निशागीत

मन उद्भ्रांत है, सब शांत है
रात का एकांत है

हरसिंगार का पेड़ है
कायर है चाँद
सुप्त है, लुप्त है
किसी कारण से गुप्त है
रात का एकांत है
घना तिमिर है
सब शांत है
कायर है चाँद
किसी और चाहना में,
वासना में असीर
अनिश्चित, अधीर
रात के एकांत में
गाता हूँ निशागीत

सोचता हूँ  अक्सर
मेरे सर पर है जो ऋण
कब हो सकूँगा उससे उऋण
मैं अपनी वासना का गुलाम
कब लौटा पाऊंगा अपने स्वेद का बूँद मात्र
अपनी माँ के लिए,
अपनी मिटटी के लिए
कब हो पाऊंगा मैं स्वामी अपनी वासना का
अपनी झोपड़ी के धुंधले प्रकाश में
रात के एकांत में

मैं अक्सर सोचता हूँ
रात के एकांत में
अपने बनाये चक्रव्यूह में मनुष्य
एक छद्म विभासा, एक कप्लना-कुवेल की आभा
मन में स्थापित किये
रात के एकांत में
चलता हुआ आ जाता कुम्भिपाकी-कीच में
रति-रंजित, उन्मादित
विस्मृत कर जीवन के वे क्षण
जो ऋण के, विश्वास के थे
और आ ठहरता है
अपने मन-मदन की तलाश में
पिया के पास में, पाश में
कहते हुए मैं कृतहस्त
मैं परिस्थिति विवश
मैं आधुनिक
मैं क्षन्तव्य
गढ़ता हूँ जीवन की नयी परिभाषाएं
और सारा ऋण पीकर
चाहता हूँ दंड न्यून
चाहता हूँ हो स्वयं पर
सदा आलोकित स्यून
रात के एकांत में

(ओंकारनाथ मिश्र, खजुराहो, ५ सितम्बर २०१५ )

Friday, September 4, 2015

ह्रदय-राग

 प्रातः नियमानुसार,
मंदिर की घंटी मस्जिद में छनती है
फिर सीधे मेरे कानों में आकर बजती है
और रातों को झींगुर बहुत देर तक कहते हैं
साहब! यहीं कहीं तानसेन अभी भी रहते हैं 
और एक लड़की को, बस देखते रहने का जूनून हैं
शायद इसी में उसे सुकून है ( क्यों हैं?)
यह शहर है या शहर-सा  है?
पर प्रश्न कुछ कोई और मन बसा है
कि सावन के झूले मज़बूत दरख्तों पर क्यों लगते हैं ?
उनकी आँखों में स्वर्ग-लोक के सपने क्यों बसते हैं?
साठ वर्षों तक भोग करके रोग से परिक्षत शरीर पर
वेश्याओं के बढ़े हाथों से घिन आती है (क्यों आती हैं?)
सोग होता है, फिर योग होता है
मूलबंद, जालंधर बंद, अग्निसार
सारे कुकर्मों का यही उपचार
ऊपर मन में मैल, नीचे शंखप्रक्षालन  
यहाँ शिव-शिव-शिव, वहां मिस रॉजर्स से लालन
मैं बस इतना पूछता हूँ कि रात के एकांत में
जब तन निढाल होता है
क्या अपनी आत्मा से सबका सवाल होता है?
कि झिलमिल रंगीनियों के इस खेल में
इन्द्रालय आकर क्यों जाती है इंद्राणी जेल में ?
रात भर श्वान भूकते हैं
हम क्या सुनने से चूकते हैं?

(निहार रंजन, ग्वालियर, २९ अगस्त २०१५)

Monday, August 31, 2015

प्यास

मैंने उस छोर पर देखा था
विशाल जलराशि
और पास आकर देखा तो सब मृगजल था
सब रेगिस्तान था
मकानों में लोग थे, हवस और शान्ति थी
वातायन था, झूठ था, जीवन था
लेकिन मेरा दम घुट रहा था
और कुछ लोगों से मुझसे कह दिया था
“माँ रेवा! तेरा पानी निर्मल’’
मैं भागता नर्मदा के पास चला आया
दुर्गावती की निशानियाँ धूल बन रही थी
फिर पानी का गिलास उठाकर 
ज्ञात हुआ इसमें जहर है
मैं यहाँ भी प्यासा रह गया
उस छोर पर पानी बिन प्यास
इस छोर  पर पानी संग प्यास
और जीवन दो प्रेयसियों के प्यास में
सद्क्षण डूबा रहता हैं
वहां जाता हूँ तो इसकी याद आती है
यहाँ आता तो उसकी विरह में डूब जाता हूँ
प्रेम सच में ‘बुरी चीज’ है
इसमें आग है, प्यास है, पानी है
जोश है, रवानी है
शूल है, कटार है
और क्या-क्या हथियार है
इसमें डूबकर भी रहा नहीं जाता
और डूबे बिना भी रहा नहीं जाता.
यह जीवन इसी के संग
एक मटकती हुई तारका की तरह
चलती जाती है, चलती जाती है
और हम और आप बस देखते जाते हैं


ओंकारनाथ मिश्र, जबलपुर, २४ अगस्त २०१५)

Monday, July 27, 2015

एक रुदाद

सर कलम करके वो आये हाथ अपने धो लिए
था लिखा रोना हमारे भाग में हम रो लिए

कह रहे थे सबसे वो करते हुए ज़िक्र-ए-रहम
तुम मनाओ खैर लेना चार था हम दो लिए

साक्ष्य भी था रक्त भी, सिसकी, किलोलें, सब के सब
जांच में पर थी सियासत सब के सब ही खो लिए

है शिकायत हाथ में जायें मगर हम किसके पास
वक्त का एक बोझ है कहकर अभी हम ढो लिए

पट्टी जिनके आँख पर हाथों तराजू जिनके है
मुख खुलेगा उनका जब तक कितने रुखसत हो लिए

हम गरीबों की सदायें शायद जगेंगी एक दिन
सोचते ही सोचते लो आज भी हम सो लिए

(ओंकारनाथ मिश्र, हरिद्वार, २० जुलाई २०१५)

Tuesday, July 7, 2015

दो बूदों के बाद


मानसूनी खेतों की हरीतिमा देखकर
जब मेरा मन पुलकित होकर झूम उठता है
तो मैं सोचता हूँकि हमारे किसानों का मन कितना झूमता होगा

वो किसान; जिनके लिए इसी हरियाली में सारी खुशहाली है
जिनके लिए इसी हरियाली में सारा स्वप्न है
जिनके लिए इसी हरियाली में बेटी की शादी है
जिनके लिए इसी हरियाली में बेटे की चिंता है
जिनके लिए इसी  हरियाली में जोरू के मुस्कान का जरिया है
जिनके लिए इसी हरियाली में भूत को विस्मृत कर भविष्य का रास्ता है
और इतनी कठिन मिहनत के बाद दो पल सुस्ताने की मोहलत है
उनके कर-नमन के लिए हमारे लिए दो पल है?

जो चटोरे; साँवरिया चिकन, चलुपा, पैड थाई और बिरयानी के दीवाने हैं
वो शायद ही सोचते हैं कितना पसीना बहाते हैं मिटटी के दीवाने
तो मिलता है हमें अनाज और उदर को शान्ति
मुझे ऐसे दीवानों से
जो मिट्टी के लिए जीते हैं, मिट्टी में जीते है
और अपनी मिट्टी के लिए ही मरते हैं;
बहुत प्रेम है
प्रेम हैबहुत-बहुत


(ओंकारनाथ मिश्र, कानपुर, ४ जुलाई २०१५) 

Monday, June 29, 2015

एक साँप के प्रति

बात बस इतनी सी थी
कि उसने अपनी टाँगे मेरे टाँगों पर रख दी थी
और सोचा था
कि जैसे नदी ने अपने में आकाश भर रखा है
जैसे एक ऑक्टोपस ने एक मछली का सर्वांग दबा रखा है
वैसे एक सांप और सेब के गिरफ्त में सारी पृथ्वी है

मैंने कई बार चाहा है कि मुझे एक पवित्र सांप मिले
एक पवित्र सांपजो चुपके से आये और कुछ पावन कर जाए
पावन, अति-पावन
लेकिन सदियों से
मुझे, या भाई अमीरचंद फोतेदार
या व्रुनी, या डग विलियम्सन, या शैनन डिमेनिया
को वो सांप नहीं मिलता है
(अब राजा जनमेजय नहीं है तो कोई करता है नाग-यज्ञ?)
मिलता है
एक तक्षक सांप  
मिलता है मुझे रिश्वत
मिलता है मुझे विष
(कहाँ गए नील कंठ?)
और एक काला सांप
काला सांप और
सेब
जिसे मैं मजे से खता हूँ
सेब खाते ही सारा फ्रक्टोज और सुक्रोज घुलकर
मुझे नींद की आगोश  में ले लेता है
और साँप बैठा रह जाता है 

मैं अक्सर सोचता हूँ कि
मुनि आस्तिक इतने दयालु नहीं होते कि
मुझे या मेगन कैम्पबेल को
यूरोप, अफ्रीका या ऑस्ट्रेलिया के लोगों को
या जंगल में चल रहे पथिकों को सांप का भय नहीं होता
लेकिन जानता हूँ कि
सांप और सृष्टि की इस कथा में
ना सांप से पृथक यह सृष्टि है
ना सृष्टि से पृथक कोई सांप है

(ओंकारनाथ मिश्र, गोपाचल पर्वत, २६ जून २०१५)



Saturday, May 30, 2015

स्वप्न जुगुप्सा

आह! अगर सांत होती वह नांत कथा

झाँक रहा था सूक्ष्म विवरों से
स्वप्न लोक का पुनीत प्रकाश
यहाँ आस, वहां भास, किलकारियां, अट्टाहास
धत! वह स्वप्न लोक, यहाँ पीव, वहां मवाद
न गौतम, न अहिल्या, ना सावित्री, ना सत्यवान
पुंश्चली (ये भी कोई शब्द है?) ही पुंश्चली,
करें तो किसका आह्वान
किलकारियां, अट्टाहास और पुनीत प्रकाश
एक नरपिशाच, दो नरपिशाच, तीन नरपिशाच
(गंदे पनाले के पार)
नरपिशाच ही नरपिशाच, संभोग के आदि-आसन में
लेकिन गौतम कोई नहीं, कोई ‘पाषाण-उत्थान’ नहीं
वहां भी शशि,
कृष्णपक्ष से संत्रस्त
चपल, किये युग्मित हस्त
शशि थी वो, चाहती थी आभा
आई घूंघट के पट खोल
दिनेश ने कहा बिन पीटे ढोल
दिगम्बरी बोल!
बोल दिगम्बरी बोल!

और यियासा लिए प्यासा
कह उठा कि प्राणमणि!
उम्र भर प्यासा रहूँगा
लेकिन
रक्त के लिए, देह के लिए, अणु-आयुध के लिए
प्यास भी कोई प्यास है?
इसी तरह परिधि-परिक्रमा करते मिला ना कोई केंद्र
यूँ तश्नालब रहे जैसे मूमल-महेंद्र

आह! अगर सांत होती वह नांत कथा


(ओंकारनाथ मिश्र, बनगांव, ३० मई  २०१५ )