शीत के दिन आ गए हैं
घन गगन पर छा गए है
पत्ते भी मुरझा गए हैं
और प्रगल्भा पूछती है कब
मिलोगे
कब तलक कविता-मधुर से तुम
छलोगे
फिर विरागी सुर में वो कुछ
गा गए हैं
शीत के दिन आ गए हैं
सिन्धु छूकर वो निदय हो बह
चली है
उसके चर्चों से चतुर्दिक
खलबली है
उसकी पैनी धार से विश्रब्ध
हो ठहरे हैं सब
आयेगा लेकर दिवाकर अपनी
रश्मि, तेज कब
सोचकर ये हम दुबक कर सो गए हैं
कल्पना के लोक में ज्यों खो
गए हैं
और वहां भी फूल सब कुम्हला
गए हैं
शीत के दिन आ गए हैं
‘’उनका मुख था शरद के उस
चाँद जैसा
चाँद जैसा, शरद के उस चाँद
जैसा’’
हमने उपमा ये, पुराणों में
पढ़ी थी
व्यास जानें, ये उन्होंने क्यों गढ़ी थी
पर लालायित हो गए हम देखने
निकल आये नेत्र अपने सेंकने
पर जुन्हाई, मन ना भाई
सकल दृष्टि में जो आया, दाग
था
मन में संचित, व्यास को
उपराग था
हाय! मिथ्या क्यों हमें
बतला गए हैं
शीत के दिन आ गए हैं
सृप्त था कवि, सुप्त था, अब
जागता है
नक्तचर हो चाँद के संग भागता
है
पर निराशा ही छुपी थी भाम
में
दाग कायम रात्रि के इस याम
में
पृथ्वी जब तक, ये नहीं ढँक
पायेगा
चाँद में, जी! दाग है, रह
जाएगा
देखकर कहिये कि हम झुठला गए
हैं?
शीत के दिन आ गए हैं
(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड
स्ट्रीट, १९ नवम्बर २०१४)
(बीते ६ नवम्बर को पूर्णिमा के चाँद की यह तस्वीर मैंने उतारी थी. आप भी देखिये)