Monday, May 5, 2014

पिया के पाश में

फिर उसी आनंद की तलाश में
लौट आया हूँ पिया के पाश में

कब कौन जी से चाहता,
पिया से दूर जाना
और पिया बिन
हो वियोगी, कविता बनाना
पर ये जीवन, हाय निर्मम!
कभी हमसे पूछ पाता
है कोई स्नेही,
जिसे बिरहा लुभाता ?
है कोई रागी,
हो जिसे बिछोह-राग?  
है कोई परितुष्ट,
कर अपने कंज-मुखी का त्याग?

पर क्या करे जीवन,
ये जो उदर की आग है
हो कोई भी राग, बंधन
करना पड़ता त्याग है  
सत्य है, जीवन गति का  
ये ही सच्चा मूल है
नित्यशः उसकी ही चिंता,
कौन सकता भूल है   
हैं सभी अनुबद्ध उसमे
मैं भी उसको मानता हूँ
पर हिया जो पीर है
मैं ही केवल जानता हूँ

सो दूर करने क्लेश को
फिर से गाढ़े श्लेष को
आ गया हूँ उस गली में, जिस गली में
स्वप्नलोकी  कुंतला है  
ना कोई चिंता, बला है
और यमस्विनी प्रीतिकर है
समय लगता है, स्थिर है
हूँ जहाँ एकांत में, निर्द्वंद मैं
बंधता हुआ जैसे किसी भुज-बंध में  

.. हा! इस भुज-बंध में
सिमटा हुआ संसार है
और इस संसार में
देखो कितना विस्तार है
जिसमे उड़ता जा रहा हूँ,
इस किनारे, उस किनारे  
चाँदनी में स्निग्ध हो,
छूते हुए असंख्य तारे 
कल्पना के लोक में
रुनझुन रुनकते नाद से  
नव उर्जा का सद-क्षण सहज संचार है
.. हा! पुनः अन्तःस्वनित अति प्रबल यह झनकार है

अब क्या किसी को दोष दें
भूल सारे रोष मैं
उड़ते रहते इस धनी आकाश में
लौट आया हूँ पिया के पाश में   

(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, ५ मई २०१४)   

काका के लिए

मैं जनता हूँ, अनिर्दिष्ट पथों में ही आत्मा सृत्वर है 
मैं जानता हूँ, भव-कूप का अंतहीन स्तर है
मैं जानता हूँ, कितना निर्दय काल का कर है
मैं जानता हूँ, भूतल से नभ के बीच कितने यमित स्वर हैं
मैं जानता हूँ, कितना निर्वचनीय यह आत्मिक समर है
और जब अपने यमित करों से आत्मिक स्पर्श के लिए
विवश हो चतुर्दिक भरमाता हूँ
शायद आपका ही हाथ अपने माथे पर पाता हूँ

मैं जानता हूँ, आपकी और अपनी सीमाएं
मैं जानता हूँ, मुक्ति और बंधन की परिभाषाएं
मैं जानता हूँ, चेतनता की विवशताएँ
मैं जानता हूँ, इस लोक और उस लोक की बाधाएं
मैं जानता हूँ, इस उद्दंड ग्रहिल उत्कंठा की संभावनाएं
और इसी सीमा, बंधन, चेतन, लोक, उत्कंठा के बीच जब  
श्वासों के आरोह-अवरोह में आतत, खो जाता हूँ
अपने मन में आपका ही विस्तार पाता हूँ

मैं जानता हूँ, किसी चालक के सम्मुख विनत यह संसृति है   
मैं जानता हूँ, किसी निर्देश से नियोजित आपकी निभृति है
मैं जानता हूँ, मेरे शून्य में गुंजायमान आपकी ही आवृति है
मैं जानता हूँ, जो क्लेश है, इस दूरी की भावुक स्वीकृति है
मैं जानता हूँ,  जो शेष है, यही संचित स्मृति है
और संसृति की इसी स्वीकृत गति को स्वीकार कर भी
जाने क्यों उद्विग्न, उद्वेलित रह जाता हूँ
सोचा आज कुछ कह जाता हूँ


आज मेरे चाचाजी की २३वीं पुण्यतिथि है. उनकी स्मृति में लिखे इन्हीं शब्दों के साथ आज के लिए विदा. कल से कलम को फिर से गति मिलेगी.

Friday, February 28, 2014

पुकार

कैद रहने दो मुझे दोस्त, कोई हवा ना दो
रहने दो ज़ख्म मेरे साथ, कोई दवा ना दो

इन तल्ख एहसासों को उतर जाने दो सुखन में
लिखने दो दास्ताँ-ए-खला, मुझको नवा ना दो

जज़्ब होने दो, हर कुछ जो है शब के पास   
होने दो मह्व सितारों में, मुझको सदा ना दो

इन सितारों में जो अक्स बन, फिरता है बारहा
खोया हूँ उसी में मैं, मुझको जगा ना  दो

यह आशिकी, है आशिकी लैला मजनूं से अलेहिदा 
इस आशिकी को ना दो दुआ, पर बद-दुआ ना दो 

ये तजुर्बा जरूरी है बहुत जीवन की समझ को
डूबने का असर जान लूं, नाखुदा ना दो 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १६-११-२०१२) 

नवा- आवाज़ 
मह्व- मिमग्न 
बारहा-बार-बार 

Wednesday, February 12, 2014

कौन कहे

लाशें ये किसकी है, लाशों का पता, कौन कहे
खून बिखरा है, मगर किसकी ख़ता, कौन कहे

वो तो मकतूल की किस्मत थी, मौत आई थी
ऐसे में किस-किस को दें, कातिल बता, कौन कहे

मत कहो उनके ही हाथों से, हुआ था गुनाह  
वो तो हथियारों ने की रस्म अता, कौन कहे  

ये नयी  बात  नहीं है, जो  तुम घबराते हो
ये तो बस  वक़्त है, देता है सता, कौन कहे

बेवजह हो रहा स्यापा, अरे सब सुनते हो?
कौन मुंसिफ है यहाँ, क्या है मता, कौन कहे 

फिर कभी लहर-ऐ-सियासत  जब उठेगी यहाँ
फिर कभी लिखेंगे हम शेर, क़ता, कौन कहे 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १५ अक्टूबर २०१३)

Sunday, January 26, 2014

काल-क्रीता

आपके चेहरे की यह ललाई
जो उभर आई है
मांसल-पिंडों की थपकियों से
आपके मुंह से झड़ते ये ‘मधुर’ बोल
जो बहुत सुनते आये हैं पूंजीवादियों से
अब क्रय-और विक्रय के
इस खेल में चिंतालीन हो
पूछता रहता हूँ अपनी तन्हाइयों से
कि ये आदमी के अंदर का
यह पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए?

अब आपको दोष दें
या आपकी उपभोक्तावादी सोच को
जिसकी परिधि सिमटी है
क्रय-विक्रय तक
जन्म से मृत्यु तक
तुच्छ-सुख संचय तक
तभी शिकागो के इस
‘एंजेल-क्लब’ से लौट
दमक रही है
आपके चेहरे की आभा
मदिरा से पोर-पोर में
आनंद है जागा
क्योंकि आपने
जो किया है, ठीक है
यही आपका मन कहता है
यही आपका चिंतन कहता है
कि यही क्रय और विक्रय
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं पृथ्वी के  
जिसमे सिमटा है समस्त जीवन
नीति और अनीति का निर्वहन
अपनी इच्छा से उसका प्रबंधन   

तभी तो उस ‘एंजेल-क्लब’ में
जाकर लौट आना
खेल है महज चंद पैसों का
बस तमाशा है चंद लम्हों का
रौशनी में खड़े उस खंभे का
जिसमे लटकी है
कोई प्रेत सी काया
अपने पंजर और पिंडों से
स्वयं को परिभाषित कराती हुई
तेज संगीत में
आपका पुलक जगाती हुई
ताकि उसकी कल की भूख का भूत
रात तक भाग जाए
मगर आपके लिए यह
सभ्योचित मंगल-कार्य है
ताकि खेल जारी रहे
क्रय और विक्रय का
क्योंकि पूँजीवाद के इस खेल में
रिश्ते, कोख, ह्रदय
संवेंदना, धर्म-अधर्म
सभ्यता, असभ्यता
सुकर्म या कुकर्म
गोश्त के टुकड़े
कुछ गर्म, कुछ नर्म
हो जानवर या मनुष्य का चर्म
या उन पंजर और पिंडों से
रिसता मानवता का मर्म
सब के सब समतुल्य हैं  
आपके लिए जैसी हँसी,
वैसे किलोल है
यह सारा चक्र
महज चंद पैसों का मोल है

मोल है, तराजू  है,
वस्तु है, उसकी तौल है
डंडी के लोच में
उलझा वणिक गोल है
अर्गला है,
उसके पार आश्लेषित निर्मला है
तन्वी-तन है, यंत्रिका है
बस यही मामला है
और इस कुंजीहीन प्रश्न में
अगर मानवता है
तो उत्तर में फिर वही
अर्थ की जीवटता है
फिर वही पंजर-पिंडो वाली
लटकी काया है
जो आयी नहीं है वणिक-बाध्यता से
वो तो तो बस 
मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है
उस अँधेरे कमरे में 
ज्यों चमकती हुई धूप है
सदियों को मनुष्योचित परंपरा का
निर्बाध प्रवाह है
पंजर है तो क्या,
उसमे चलती सांसे हैं, धाह है
शरीर है, चेतना है
तो मान लेते हैं कि इंसान है
रोटी तो है, कपड़ा है,
क्या हुआ जो पतित मान है
कम से कम आपके
पूँजीवाद का सूरज उज्जिहान है

जानता हूँ इस व्यापार से
अक्षुण्ण आपकी तिग्मता
धूमिल नहीं होगी घर लौटकर
गोमुख से बंगाल तक
कहीं भी कर लेंगे आप आचमन
महामृत्युंजय जाप से शाप शमन
मगर अर्थतंत्र में 
उलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
जिसकी पर्यायवाची होगी,
कोई वर्तिका, कोई सीता
फिर आप कहेंगे
ठीक है! सब ठीक है!
और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
कि ये आदमी के अंदर का 
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?

(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, २६ जनवरी २०१४)              

Monday, January 20, 2014

सोडियम-चिंतन

सावन भादो की बात नहीं
बारहमासी यह नाता है 
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है  

उद्योग, वसन व भोजन में
महता इसकी है जीवन में
प्याले में, रस में, दर्पण में
तन के दूषण के क्षालन में
कभी लवण, कभी यौगिक बन
जल घुल, बचता है जलने से
बचता है लपट में मिलने से
पर मूल रूप में आते ही
दुश्मन, पवन बन जाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है  

अपनी प्रकृति या ‘डेवी’ की मति
कौन है दोषी, किसको पता
वरना यौगिक बन आज भी यह
जल में मिल, फिरता रहता
ना आता बाहर जलने को
आतुर प्रतिपल मर-मिटने को
प्यासा इतना कि मत पूछो
ज्यों विरह-दग्ध अंधा प्रेमी
अश्रुत कर हित-आहूति को
आहुति में जीवन पाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है

मृदु धातु है, चमकीला सा
कितनी फैली इसकी यारी
लघु तत्व हो या विषम अवयव
रहता बन धनावेश-धारी
पर रसिया है, रस पीता है
मदिरा (एथेनॉल) से देखो इसका मिलन
तब तक पीता ही रहता है
जब तक कर ना ले आत्म-क्षरण
है उन्मादी, पर दाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है

पूछो जाकर 'मृत-सागर' से
ताकत इसकी कितनी होती
पूछो उस तट के पानी से
जिसपर सुंदरियां जा सोती
पूछो धमनी व शिराओं से
क्यों चाहते वो संतुलित लवण
घट-बढ़ जब यह जाता है 
संकट में होता है जीवन
जाने इसमें कितनी माया
मन खो जिसमे भरमाता है       
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है

जिसमे जलती सारी दुनिया (केरोसिन)
उसमे यह शान्ति पाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है


(निहार रंजन, सेंट्रल, २० जनवरी २०१४)


Tuesday, January 14, 2014

लिखना है मुझे

जानता हूँ कि एक दिन  
समय के साक्षी ये सारे शब्द
जो लिखे हैं मुक्त या छंदबद्ध  
कभी मस्ती में डूब कर
कभी अपनी पीड़ा से ऊब कर  
गुम हो जाएंगे एक दिन, मेरी तरह
फिर भी लिखता हूँ
कि लिखना है मुझे  

समय का चाक घूमता रहेगा
नयी भाषाएँ जन्म लेती रहेंगी
शील और अश्लील के नए अर्थ होंगे
न्याय और अन्याय की नयी व्याख्या होगी
आज की हर नयी चीज पुरानी होगी
जीवन से नयी अपेक्षाएं होंगी
प्रगतिवाद, पुरातनवाद, छायावाद, प्रयोगवाद
इन सारे रूपों से दूर कविता
किसी नए रूप में जन्म लेगी
और ये सारे शब्द
हड़प्पा की लिपि की तरह
नहीं पायेंगे कुछ कह

लेकिन आनंद के दो क्षण के लिए
पल भर बंधनहीन मन के लिए
वेदना से नैमिष अवकाश के लिए
मन के अंध में अवभास के लिए
कभी एकांत अश्रु-स्यंदन के लिए
कभी निर्जीव से तन में स्पंदन के लिए
किसी अबोल की व्यथा के लिए
दागी चाँद की कथा के लिए
यौवन-प्रसूत दंभ के लिए
अरुचिकर अनुभवों पर उपालंभ के लिए
कभी प्रकृति से मुग्ध होकर
कभी अंधी दौड़ से क्षुब्ध होकर
लिखता हूँ, कि लिखना है मुझे   


(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ जनवरी २०१४)