Friday, February 28, 2014

पुकार

कैद रहने दो मुझे दोस्त, कोई हवा ना दो
रहने दो ज़ख्म मेरे साथ, कोई दवा ना दो

इन तल्ख एहसासों को उतर जाने दो सुखन में
लिखने दो दास्ताँ-ए-खला, मुझको नवा ना दो

जज़्ब होने दो, हर कुछ जो है शब के पास   
होने दो मह्व सितारों में, मुझको सदा ना दो

इन सितारों में जो अक्स बन, फिरता है बारहा
खोया हूँ उसी में मैं, मुझको जगा ना  दो

यह आशिकी, है आशिकी लैला मजनूं से अलेहिदा 
इस आशिकी को ना दो दुआ, पर बद-दुआ ना दो 

ये तजुर्बा जरूरी है बहुत जीवन की समझ को
डूबने का असर जान लूं, नाखुदा ना दो 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १६-११-२०१२) 

नवा- आवाज़ 
मह्व- मिमग्न 
बारहा-बार-बार 

Wednesday, February 12, 2014

कौन कहे

लाशें ये किसकी है, लाशों का पता, कौन कहे
खून बिखरा है, मगर किसकी ख़ता, कौन कहे

वो तो मकतूल की किस्मत थी, मौत आई थी
ऐसे में किस-किस को दें, कातिल बता, कौन कहे

मत कहो उनके ही हाथों से, हुआ था गुनाह  
वो तो हथियारों ने की रस्म अता, कौन कहे  

ये नयी  बात  नहीं है, जो  तुम घबराते हो
ये तो बस  वक़्त है, देता है सता, कौन कहे

बेवजह हो रहा स्यापा, अरे सब सुनते हो?
कौन मुंसिफ है यहाँ, क्या है मता, कौन कहे 

फिर कभी लहर-ऐ-सियासत  जब उठेगी यहाँ
फिर कभी लिखेंगे हम शेर, क़ता, कौन कहे 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १५ अक्टूबर २०१३)

Sunday, January 26, 2014

काल-क्रीता

आपके चेहरे की यह ललाई
जो उभर आई है
मांसल-पिंडों की थपकियों से
आपके मुंह से झड़ते ये ‘मधुर’ बोल
जो बहुत सुनते आये हैं पूंजीवादियों से
अब क्रय-और विक्रय के
इस खेल में चिंतालीन हो
पूछता रहता हूँ अपनी तन्हाइयों से
कि ये आदमी के अंदर का
यह पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए?

अब आपको दोष दें
या आपकी उपभोक्तावादी सोच को
जिसकी परिधि सिमटी है
क्रय-विक्रय तक
जन्म से मृत्यु तक
तुच्छ-सुख संचय तक
तभी शिकागो के इस
‘एंजेल-क्लब’ से लौट
दमक रही है
आपके चेहरे की आभा
मदिरा से पोर-पोर में
आनंद है जागा
क्योंकि आपने
जो किया है, ठीक है
यही आपका मन कहता है
यही आपका चिंतन कहता है
कि यही क्रय और विक्रय
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं पृथ्वी के  
जिसमे सिमटा है समस्त जीवन
नीति और अनीति का निर्वहन
अपनी इच्छा से उसका प्रबंधन   

तभी तो उस ‘एंजेल-क्लब’ में
जाकर लौट आना
खेल है महज चंद पैसों का
बस तमाशा है चंद लम्हों का
रौशनी में खड़े उस खंभे का
जिसमे लटकी है
कोई प्रेत सी काया
अपने पंजर और पिंडों से
स्वयं को परिभाषित कराती हुई
तेज संगीत में
आपका पुलक जगाती हुई
ताकि उसकी कल की भूख का भूत
रात तक भाग जाए
मगर आपके लिए यह
सभ्योचित मंगल-कार्य है
ताकि खेल जारी रहे
क्रय और विक्रय का
क्योंकि पूँजीवाद के इस खेल में
रिश्ते, कोख, ह्रदय
संवेंदना, धर्म-अधर्म
सभ्यता, असभ्यता
सुकर्म या कुकर्म
गोश्त के टुकड़े
कुछ गर्म, कुछ नर्म
हो जानवर या मनुष्य का चर्म
या उन पंजर और पिंडों से
रिसता मानवता का मर्म
सब के सब समतुल्य हैं  
आपके लिए जैसी हँसी,
वैसे किलोल है
यह सारा चक्र
महज चंद पैसों का मोल है

मोल है, तराजू  है,
वस्तु है, उसकी तौल है
डंडी के लोच में
उलझा वणिक गोल है
अर्गला है,
उसके पार आश्लेषित निर्मला है
तन्वी-तन है, यंत्रिका है
बस यही मामला है
और इस कुंजीहीन प्रश्न में
अगर मानवता है
तो उत्तर में फिर वही
अर्थ की जीवटता है
फिर वही पंजर-पिंडो वाली
लटकी काया है
जो आयी नहीं है वणिक-बाध्यता से
वो तो तो बस 
मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है
उस अँधेरे कमरे में 
ज्यों चमकती हुई धूप है
सदियों को मनुष्योचित परंपरा का
निर्बाध प्रवाह है
पंजर है तो क्या,
उसमे चलती सांसे हैं, धाह है
शरीर है, चेतना है
तो मान लेते हैं कि इंसान है
रोटी तो है, कपड़ा है,
क्या हुआ जो पतित मान है
कम से कम आपके
पूँजीवाद का सूरज उज्जिहान है

जानता हूँ इस व्यापार से
अक्षुण्ण आपकी तिग्मता
धूमिल नहीं होगी घर लौटकर
गोमुख से बंगाल तक
कहीं भी कर लेंगे आप आचमन
महामृत्युंजय जाप से शाप शमन
मगर अर्थतंत्र में 
उलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
जिसकी पर्यायवाची होगी,
कोई वर्तिका, कोई सीता
फिर आप कहेंगे
ठीक है! सब ठीक है!
और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
कि ये आदमी के अंदर का 
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?

(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, २६ जनवरी २०१४)              

Monday, January 20, 2014

सोडियम-चिंतन

सावन भादो की बात नहीं
बारहमासी यह नाता है 
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है  

उद्योग, वसन व भोजन में
महता इसकी है जीवन में
प्याले में, रस में, दर्पण में
तन के दूषण के क्षालन में
कभी लवण, कभी यौगिक बन
जल घुल, बचता है जलने से
बचता है लपट में मिलने से
पर मूल रूप में आते ही
दुश्मन, पवन बन जाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है  

अपनी प्रकृति या ‘डेवी’ की मति
कौन है दोषी, किसको पता
वरना यौगिक बन आज भी यह
जल में मिल, फिरता रहता
ना आता बाहर जलने को
आतुर प्रतिपल मर-मिटने को
प्यासा इतना कि मत पूछो
ज्यों विरह-दग्ध अंधा प्रेमी
अश्रुत कर हित-आहूति को
आहुति में जीवन पाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है

मृदु धातु है, चमकीला सा
कितनी फैली इसकी यारी
लघु तत्व हो या विषम अवयव
रहता बन धनावेश-धारी
पर रसिया है, रस पीता है
मदिरा (एथेनॉल) से देखो इसका मिलन
तब तक पीता ही रहता है
जब तक कर ना ले आत्म-क्षरण
है उन्मादी, पर दाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है

पूछो जाकर 'मृत-सागर' से
ताकत इसकी कितनी होती
पूछो उस तट के पानी से
जिसपर सुंदरियां जा सोती
पूछो धमनी व शिराओं से
क्यों चाहते वो संतुलित लवण
घट-बढ़ जब यह जाता है 
संकट में होता है जीवन
जाने इसमें कितनी माया
मन खो जिसमे भरमाता है       
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है

जिसमे जलती सारी दुनिया (केरोसिन)
उसमे यह शान्ति पाता है
देखो कैसी नियति इसकी
पानी भी आग लगाता है


(निहार रंजन, सेंट्रल, २० जनवरी २०१४)


Tuesday, January 14, 2014

लिखना है मुझे

जानता हूँ कि एक दिन  
समय के साक्षी ये सारे शब्द
जो लिखे हैं मुक्त या छंदबद्ध  
कभी मस्ती में डूब कर
कभी अपनी पीड़ा से ऊब कर  
गुम हो जाएंगे एक दिन, मेरी तरह
फिर भी लिखता हूँ
कि लिखना है मुझे  

समय का चाक घूमता रहेगा
नयी भाषाएँ जन्म लेती रहेंगी
शील और अश्लील के नए अर्थ होंगे
न्याय और अन्याय की नयी व्याख्या होगी
आज की हर नयी चीज पुरानी होगी
जीवन से नयी अपेक्षाएं होंगी
प्रगतिवाद, पुरातनवाद, छायावाद, प्रयोगवाद
इन सारे रूपों से दूर कविता
किसी नए रूप में जन्म लेगी
और ये सारे शब्द
हड़प्पा की लिपि की तरह
नहीं पायेंगे कुछ कह

लेकिन आनंद के दो क्षण के लिए
पल भर बंधनहीन मन के लिए
वेदना से नैमिष अवकाश के लिए
मन के अंध में अवभास के लिए
कभी एकांत अश्रु-स्यंदन के लिए
कभी निर्जीव से तन में स्पंदन के लिए
किसी अबोल की व्यथा के लिए
दागी चाँद की कथा के लिए
यौवन-प्रसूत दंभ के लिए
अरुचिकर अनुभवों पर उपालंभ के लिए
कभी प्रकृति से मुग्ध होकर
कभी अंधी दौड़ से क्षुब्ध होकर
लिखता हूँ, कि लिखना है मुझे   


(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ जनवरी २०१४)

Monday, January 6, 2014

शाम घिर आई है

फिर वही, संध्या सुंदरी है
फिर वही, कुसुम-निढाल चंचरी है
फिर वही, मनमोही अरुणाभा है
फिर वही, वादियों में तिमिर जागा है
फिर वही, क्षितिज में व्याप्त तन्हाई है
शाम घिर आई है

फिर वही, रिक्त आकाश है
फिर वही, अभ्रित-भास है
फिर वही, पक्षी-दल उड्डीन हैं
फिर वही, घर लौटने सब लीन हैं
फिर वही, रिझाती शाद्वल-खाई है
शाम घिर आई है

फिर वही, भयद नीरवता है
फिर वही, तनु तुहिन मन रमता है
फिर वही, शीत की दुश्वारी है
फिर वही, नील नभ क्लम-हारी है
फिर वही, चतुर्दिक शान्ति छाई है
शाम घिर आई है 

फिर वही, सड़क पर कोई भुट्टा बेचती है
फिर वही, निर्दयी हवा उसका तन बेधती है
फिर वही, किसी का हाथ खाली है
फिर वही, उजाला है, बदहाली है
फिर वही, ऊपर वादियाँ हैं, रानाई है
फिर वही, नीचे नंगी सच्चाई है
शाम घिर आई है

(निहार रंजन, सेंट्रल, ६ जनवरी २०१४ ) 


(वादियों में नए साल के प्रथम सूर्यावसान की बेला )  


(वादियों के नीचे रात के आगोश में जाती संध्या)

Monday, December 23, 2013

‘बीच’-ट्रिप टू फ्लोरिडा'

अस्त-व्यस्त अकुलायी लपटें
अकबर का प्रभाहीन स्वर्ण-क्षत्र 
याचनारत श्रद्धालु यत्र-तत्र सर्वत्र
बस इतना ही
ज्वालामुखी मंदिर का विस्तार
उसपर ये कुहासा और ठाड़
कहो क्या है रोमांच भरने को वहां ?

यही सवाल थे
और मैं चुप था
क्योंकि मंदिर में वही है
जो तुमने कहा है
तुम या मैं
यानि मेरे भारत की नयी पौध का एक रूप
जिसने ना अन्न की किल्लत देखी है
ना ‘कंट्रोल’ से वस्त्र पाया है
देखी है तो बस
‘शाइनिंग इंडिया’ की तस्वीरें
फिल्मों में, अखबारों में 
तथा पाया है
देसीपन में व्यक्तित्व-लघुता का भय
और उर-स्फीति  
किसी रोबदार जामे में
हल्के से सिगरेटी धुएं के बीच
धूपचश्मे में नयन कैद (या स्वतंत्र) कर   
मधुरस भरा एक गिलास हाथ में लिए   
आधुनिक भारतीय समाज में बा-फक्र 
‘आधुनिक’ हो जाना

इसीलिए मैंने अस्वीकार नहीं किया
तुम्हारे बीच-ट्रिप के प्रस्ताव को
क्योंकि आधुनिकता की इस आंधी ने  
हमें सिखाया है, ‘छुट्टियों’ का मतलब
थाईलैंड के द्वीप पर, किसी छतरी के नीचे
या किसी ’कबेना’ में सुस्ताते
हाथों में ‘माई ताई’ का भरा प्याला लेना  
प्याले के ‘जमैकन रम’ से जगी
आभा और उर्जा भरी
एक तस्वीर उतार लेना
ताकि हर जगह  
‘वाओ’, ‘क्यूट’, ‘ब्यूटीफुल’, ऐडोरेबल’ की बरसात हो
और जीत हो
दोस्त के गोवा ट्रिप पर
‘माई ताई’ की जीत हो ‘फेनी’ पर     

अस्वीकार कैसे करता मैं?
वो मेरी आधुनिकता की प्रथम परीक्षा थी
तभी झट से हामी भर दी थी मैंने
‘फॉर अ बीच-ट्रिप टू फ्लोरिडा’
वही नीले पानी, नीले मेघ
अनगिन ‘बीचों’ का फ्लोरिडा
और पूछा था पता एक मीत से
मखमली रेत वाली एक ‘बीच’ का  
ताकि प्रिय के नाज़ुक पैरों को
छू ना ले कोई कंकड़
और मेरे सीने जा ना लगे, कोई पत्थर

अब इस ‘बीच’ पर आकर, प्रिय  
शिकवा क्यों कि ‘न्यूड’ ‘बीच’ है
‘बीच’ ‘न्यूड’ नहीं है
लोग ‘न्यूड’ है 
आधुनिक बनने की दौड़ में
वस्त्र त्याग कर
मैं ‘न्यूड’ हूँ    
पर मुझमें क्यों होता तुम्हे
असभ्यता का भान?
शायद हमने पाया नहीं अबतक
पूर्ण आधुनिकता का ज्ञान

उदासी मत बढाओ
क्योंकि मैं कुंठित नहीं हूँ
इस ‘न्यूड बीच’ पर
तुम्हारे वस्त्रावृत तन को देख
या अंतर्मन की इच्छा है मेरी  
कि मेरी तरह आधुनिकता की होड़ में
नग्नदेही हो जाओ तुम भी
पुराने तर्कों के साथ
कि यही तन का आदि-रूप है
जिसमे अहं क्षीण है
आत्मा निस्तीण है

लेकिन तुम खड़ी हो, स्तब्ध
आधुनिकता और अत्याधुनिकता के द्वन्द में
पर यह द्वन्द तुम्हारा नहीं   
हमारी पौध का है
जो भाग रही है इस अंधी दौड़ में
कभी ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए
कभी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए

प्रिय!
सच कहूं तो देना वस्त्र त्यज
था नहीं मेरे लिए भी सहज
इसीलिए क्यों ना  
इसी ‘बीच’ पर धो डालें  
हम अपनी इस ‘आधुनिकता’ का रंग
जो पाया है हमने अंधी दौड़ से
और हो जाएँ वही
जो हम हैं


(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, २२  दिसम्बर २०१३)