Saturday, June 15, 2013

हे मान्यवर!

हे मान्यवर!
मैंने कब कहा
मैं पापी नहीं हूँ
लेकिन स्वर्ग की चाह नहीं है मुझे
नर्क का भय नहीं है मुझे 
मैं स्वर्ग-नर्क से ऊपर उठ चुका हूँ
इसलिए मुझे माफ़ कर दो
रसायनों से तृप्त हैं मेरे रोम-रोम
मुझे उसी में रमने दो
उसी में जीने
उसी में मरने दो
लेकिन स्वर्ग- नर्क के द्वार मत दिखाओ

हे मान्यवर!
अगर मेरा कोई पाप है
तो मैं पाप की सारी सजा
अपने सर लूँगा
कांटो पर सोऊंगा
गरम तेल में तल जाऊँगा
ओखल में कुट जाऊँगा
लेकिन मैं पाप नहीं धुलवाउंगा
क्योंकि मुझे निर्वाण
सजायाफ्ता होकर ही मिलेगा
मुझे स्वर्ग का रास्ता मत दिखाओ 

हे मान्यवर!
मैं शिव का पुजारी हूँ
रावण के शिवतांडवस्त्रोतम का
रोजाना पाठ करता हूँ
बाली का गुणगान करता हूँ
राम की कई गलतियां देखता हूँ 
कृष्ण के गीत गाता हूँ
नर्क के भय से नहीं
बस इसलिए कि
ये सब करना मुझे अच्छा लगता है
इसलिए मुझे मुक्ति का मार्ग
मत दिखाओ

हे मान्यवर!
मैंने किसी का
अहित नहीं किया
किसी के घी का
घड़ा नहीं फोड़ा
किसी के सिर पर
ईंट नहीं तोड़ा
लेकिन आपने महाराज
पापी ही माना है तो
आपका हुक्म स्वीकार
लेकिन ये मोल-तोल नहीं
स्वर्ग जाने के लिये

हे मान्यवर!
इस देह में
अच्छाई है, बुराई है
प्रेम है, क्रोध है
लोभ है, त्याग है
लेकिन प्रक्षेपित हो कर
शिखर जाने की इच्छा नहीं  
मुझे सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ना, गिरना, 
उठना, संभलना
अच्छा लगता है
इसलिए अपनी उर्जा बचाओ
गला ही खखासना है
तो मेरे साथ
‘कान्हा करे बरजोरी’ गाओ
नहीं तो मेरे रसायनों के साथ
घुल-मिल जाओ
मगर मुझे स्वर्ग का रास्ता मत दिखाओ!


(निहार रंजन, सेंट्रल, ११ जून २०१३)

Sunday, June 9, 2013

दिलबस्त

ज़ब्त कर लो
ह्रदय की उफान
बेरोक आँसू
सिसकियों की तान
म्लिष्ट शब्द तुम्हारे
और ये बधिर कान
व्यर्थ रोदन में
नहीं है त्राण
समय देख प्रियतम !

तचित मन की दाझ
ये बादल बेकार
बस नहीं इनका
दें तुझको तार
अंधियारी रातों से
एकल आवार
सपने! हाँ वही
रहे जिंदा तो हों साकार 
समय देख प्रियतम !

किस बात का मलोल
शिकायतों को छोड़
खुली आँखों से देख
भुग्न-मन की जड़ता तोड़
उत्कलित फूलों पर
सुनो भ्रमरों का शोर
पाओ चिंगारी को
जाते वारि-मिलन की ओर
समय देख प्रियतम !

ताखे की ढिबरी से
अपना काजल बना
पायल बाँध पैरों में  
गाढ़ा अलक्त रचा
मन आकुंचन को
असीमित विस्तार दिला
दृप्त मन से
फिर से गीत गा 
समय देख प्रियतम !

(निहार रंजन, सेंट्रल, ६ जून २०१३)

दाझ = जलन 

Tuesday, June 4, 2013

दृग-भ्रम

हर सुबह
देखता था सामने
धवल शिखरों की
अनुपम सुन्दरता
उसपर भोर की
मनोहर पीली किरण
उसका वो
शांत सौम्य रूप  
ललचाता था  
उसपर जाने को
उसकी सुन्दरता को
करीब से महसूस करने को
उसकी उपत्यकाओं में
खुद के प्रतिध्वनित
शब्दों का संगीत
सबको सुनाने को
उसी के शिखरों पर
सदा रच बस जाने को
उसमे तृप्त हो
जीवन जीने के लिए

लेकिन आज   
उन्हीं शिखरों से
उठ रहा है  धुआं
उसकी गहरी घाटियों में  
सुन रहा हूँ
भूगर्भ का
प्रलयंकारी निनाद
चारों तरफ मची है
अफरातफरी लोगों में
लेकिन उसका लावा
बेपरवाह बढ़ रहा है
लीलने की लीला दिखाने  
अपना असली रूप दिखाने

कहाँ गए वो
हिमाच्छादित चोटियाँ
कहाँ है उनका सौंदर्य
मुग्ध करनेवाला
शायद मेरी आँखों पर
परत चढ़ी थी
या मेरे मूढ़ मन की
सहज अदूरदर्शिता
सच ही कहा है लोगों ने
हर आकर्षक चीज
अच्छी नहीं होती

(निहार रंजन, सेंट्रल, ४  जून २०१३ )

    

Wednesday, May 29, 2013

नीली रौशनी के तले

किंग्स स्ट्रीट से हर रोज़
गुजरता हूँ घर लौटते  
उसे बेतहाशा पार करने की जिद ठाने
मगर ये रेड लाइट
रोक लेती है मुझे
नीली-पीली रौशनी से नहलाने के लिए
‘भद्रपुरुषों’ के क्लब में मुझे बुलाने के लिए
भद्र समाज में भद्रता का पाठ पढ़ाने के लिए
इसी दुनिया में ‘जन्नत’ की सैर कराने के लिए

ये कोई सोनागाछी नहीं
ये कोई जी बी रोड नहीं
ये चोर-गलियाँ नहीं
इसमें छुपकर जाने की ज़रुरत नहीं
सामजिक सरोकारों से जुड़े हैं ये
जनता की मुहर है इसे
और नीली रौशनी को बड़ी जिम्मेदारी है
आपको ‘भद्र’ बनाने की

इसलिए स्वेच्छा से खड़ी
मुस्कुराती ये तन्वंगियाँ
सिगरेट-हुक्कों के मशरूमी धुएं के बीच
सागर-ओ-सहबा के दौर के साथ
बिलकुल पाषाणी अंदाज़ में
आपसे एक होना चाहती है
क्योंकि समाज ने जिम्मेदारी है इसे
आपको ‘भद्र’ बनाने की

जितनी जोर से आपके सिक्के झनकते है
उतनी ही जोर से अदाओं की बारिश होती है  
मर्जी से तो क्या!
आखिर उन चेहरों की तावानियाँ भी
अन्दर दबाये हैं  
वही परेशानियां, वही मजबूरियां
जो मजबूरियाँ सोनागाछी में पसरी है
जी बी रोड में दफ़न है  
और हमारी जेबों के सिक्के
आमादा हैं उन मजबूरियों का अंत करने
नीली रौशनी के तले

याद दिलाता है मुझे
वो बेबीलोनी सभ्यता के लोग हों
या हम,  कुछ बदला नहीं
समय बदला, चेहरे बदले
लेकिन चाल नहीं बदली
वही बाज़ार है, वही खरीदार है
बस फर्क है कोई स्वेच्छा से नाच रही है
किसी को जबरन नचाया जा रहा है
कोई नीली रौशनी में डूब जाना चाहता है
किसी को नीली रौशनी में डुबाया जा रहा है

 (निहार रंजन, सेंट्रल, २८ मई २०१३)

Sunday, May 26, 2013

जिसने की निंदिया की चोरी



जिसने की निंदिया की चोरी

जिसने की निंदिया की चोरी
उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

मन आँगन में जिसने आकर
चिर-प्रकाश का दीप जलाकर
नंदित कर मन का हर कोना
फिर तन्द्रा से मुझे जगाकर
मधुरित कर जो बाँध गई वो 
जाने कैसी प्रीत की डोरी

उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

मन-मरू में वो विजर जान बन
अनुरक्ता बन, मेरा प्राण बन
कंटक पथ पर फूल बिछाये
आ जाती है मेरा त्राण बन
कभी मृग-वारि जैसी खेले
कभी वो गाये मीठी लोरी 

उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

वो प्रियंकर गीत बन कर
दाह में आ शीत बन कर
खेलती रहती है मन से
एक लजीली मीत बन कर  
निभृति त्यजकर हो सन्मुख
काश! वो करती बातें थोड़ी

उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ मई २०१३)


ढोरी = उत्कट लालसा 

Saturday, May 18, 2013

कुछ बोलो तुम

कुछ बोलो तुम

इस मौन को त्यजकर
अपने मुख को खोलो तुम
कुछ बोलो तुम

डरो मत तुम
गर कथ्य विवादित हो
ठहरो मत तुम
गर वाद पराजित हो
हर युग में होते आये हैं
मुंह पर जाबी देने वाले
तू छोड़ सच पर, बोल अभी
जब होना हो वो साबित हो

अंतर जिधर जाने कहे   
उस मार्ग के अध्वग हो लो तुम
कुछ बोलो तुम

हाँ माना मैंने
चक्षु दोष से बाधित हो
हाँ माना मैंने
समयचक्र से शापित हो
पर ध्यान रहे वो वनित हर्ष
जानता नहीं शापित-बाधित
वो नहीं जानेगा क्यों तुम
प्रीणित या अवसादित हो  

कर आज मनन
सच के सलीब को ढो लो तुम
कुछ बोलो तुम

हों शब्द तुम्हारे स्नेह तिमित
या ज्वाला से प्लावित हो
उनको आने दो यथारूप
झूठ से ना वो शासित हो  
हो निघ्न निकृति सहते सहते
उर-ज्वाला में तपते तपते
जीवन मरण बन जाएगा
ग्लानि से सर जब नामित हो   

चाहे हो जाओ एकाकी
पर संग हवा न डोलो तुम
कुछ बोलो तुम

(निहार रंजन, सेंट्रल, १८ मई २०१३)

Saturday, May 11, 2013

पता तो चले


अजी खुल के इश्तेहार कीजिये
कह डालिए सबसे माँ आपके लिए क्या है
तब तो पता चले सबको
कितना प्यार है माँ से
फूलों का गुलदस्ता भेजिए
कार्ड भेजिए, सन्देश भेजिए
उपहार भेजिए, उनका पसंदीदा आहार भेजिए
और सबको विश्वास दिला दीजिये
बहुत प्यार है आपको अपनी माँ से

डाल दीजिये अपने अपने किस्से
सोशल नेटवर्किंग के ठिकानों पर
कह दीजिये दूध पिलाने के लिए शुक्रिया
गोद में झुलाने के लिए शुक्रिया
नहलाने के लिए शुक्रिया
लोरी सुनाने के लिए शक्रिया  
मेला घुमाने के लिए शुक्रिया
आखिर माँ को भान हो
आप कृतघ्न बच्चे नहीं हैं

माँ धन्य हो जायेगी
आपकी कृतज्ञता जानकर
फूलों का गुलदस्ता पाकर
आश्वस्त होकर यह जानकर
कि वो आपकी जीवनदायिनी है
और आपको उनसे प्यार है
और साथ में कह जायेगी
बहुत बहुत शुक्रिया
मुझे तुमपर बहुत गर्व है

वितृष्णा होती है
मुझे ऐसे इश्तेहारों से
क्योंकि मैंने देखे हैं
ऐसे इश्तेहार करने वालों की माँ को
अस्पताल में अकेले दम तोड़ते हुए   
उनकी अस्थियों को बरसों से
अटलांटिक महासागर से मिलन को तरसते हुए
उस झूठे इश्तेहार को बेपर्दा होते हुए

इसलिए ऐ पछिया पवन!
मंद हो जाओ
रहने दो मेरी माँ को
अनभिज्ञ मेरी कृतज्ञता से
पढने दो उसे रामायण
माँगने दो मेरे लिए
दुआएं उम्र भर
रहने तो उसे उपहारहीन
सन्देश विहीन  
इस बात से अनजान
कि मेरे आधे गुणसूत्र उसी के हैं
और मेरा अस्तित्व उसी है !
(निहार रंजन,सेंट्रल, ११  मई २०१३)

Tuesday, May 7, 2013

चाँद से शिकायत


देख ली तुम्हारी हकीकत
निर्जन, निर्वात, पथरीला
यही सच है तुम्हारा
झूठे मामा मेरे बचपन के
पर-आभा से चमकने वाले
क्यों मैं पूजूं तुम्हें?

पंद्रह दिनों के चक्र में
फर्श से अर्श तक
और अर्श से फर्श तक
पेंडुलम की तरह झूलने वाले
कोई चाहता तो आभा तुझमे
कोई चाहता तो घोर तमस्क
तुझसे अच्छे तारे मेरे दूर गगन में
टिम-टिम करते रहते बिना थकन के

तुझको जाना बचपन से प्यारे हो तुम
पर माँ ने बताया नहीं तेरा सच
कितने बेबस और लाचार हो तुम
सूरज की चमक बिन बिलकुल बेकार हो तुम
क्या है प्यारा तुझमे ?
पूनम की रात का दागदार रूप?
हर निशा की मिन्हाई जुन्हाई ?
या अमावस की रात तुझसे मिली तन्हाई ?

पूज लेता मैं तुम्हे
होती चमक अगर तुझमे अपनी 
और हर रात मेरी झलकरानी
नुपुर-ध्वनि लिए कोसों से कौतूहल जगाये  
कोसी किनारे धेमुराघाट पर आती
और कभी ना कह पाती मुझसे
आज अमावस की रात है!

(निहार रंजन , सेंट्रल,  ७ मई २०१३) 

Sunday, April 21, 2013

बहुरुपिया

दीवार पर टंगे दर्पण में
और फिर अपने मन में 
देखेंगे खुद को  हो गंभीर 
तो दिखेगी अपनी अलग-अलग तस्वीर 
दीवार का आइना दिखाता है 
सिर्फ अपना बाह्य शरीर
पर मन का आइना दिखाता है वो चेहरे 
जिसे देख खुद को होता पीर 
हमें देख जो दुनिया मुस्कराती है 
शायद सब अच्छा हमारे में पाती है
पर पूछें ह्रदय से तो करेगा स्वीकार
कहाँ मुक्त हो पाते हैं हमसे सांसारिक विकार
मद, लोभ, काम, झूठ, क्रोध  
सबका अपने अन्दर हमें होगा बोध 
इन रोगों से निकल जाने की होती है चाहत 
मगर दुनिया नहीं देती इसकी इज़ाज़त

सच बोलने को जब होठों पर होती जुम्बिश 
आ ही जाती है कई तरह की बंदिश 
चेहरे देख, काया निहार
भुजाओं का देख आकार  
लोगों का सुन आग्रह, दुराग्रह 
फिर अपने मन का पूर्वाग्रह 
सच, सच नहीं रह पाता
सच झूठ में है बदल जाता 
शब्द बदल जाता हैस्वर बदल जाता है 
सच निकलने से पहले हमारा दम निकल जाता है  
फिर भी चेहरे पर डाले झूठा आवरण, पथ पर
करते उद्घोष खुद को कहते हम सत्यंकर 
गाते  हैं  धर्म-गीत, देते हैं उसके उपदेशों पर जां
कोशिश करते कि असल रूप हो ना हो उरियां  
साबित आखिर कर ही देता है  
सच के सामने कितना मजबूर है इंसान  

परम सत्य को ढूँढने जब जाते हम निकल 
तो लगता काश! सच से होती बातें दो पल 
मगर ये मृत्यु दगाबाज़ 
होता नहीं जीते जी किसी से हमआवाज़
वेद-पुराण सब यही कहते है
सत्य सबसे बली है
सब पढ़कर भी हम 
बने हुए कितने हम छली हैं
क्योंकि सत्य को पेश करना जोड़-तोड़ कर 
वैसा ही है जैसे जाना सत्य छोड़ कर 
हमारे अस्तित्व और असत्य का है अटूट बंधन 
बिना क्लेश और पीड़ा के नीरस ना हो जाए ये जीवन 
ताउम्र स्वर्ग की चाहत का रह ना जाए कोई अर्थ 
जीवन को शान्ति में गुज़ार हो ना जाए समय व्यर्थ 
इसीलिए भले ही दुनिया रहे कोसती
काम क्रोध मद लोभ से  टूट ना पाती हमारी  दोस्ती

एक चेहरे के भीतर सौ चेहरे 
क्या गोरे क्या काले क्या भूरे 
छद्म हँसी, छद्म प्यार, छद्म आह 
छद्म की इनायत भरी निगाह 
धर्मघरों में घूमते पापी सरेआम 
स्वर्ग के डाकिये बन देते हैं पैगाम 
अपने ही हाथों से पौधे में प्राण भर 
उसी हाथों से देते है पौधे को कुतर 
अपने आलाओं के नाम जपते पुरवेग 
रखते पैरहन में एक चमचमाता तेग 
विज्ञान कहता है हम निन्यानवे फीसदी सम 
इसलिए रह ना जाए ये भ्रम 
चाहे ढूंढों समुद्र में गोता मार 
या ढूंढों जंगल-झाड़
पूर्ण सत्य नहीं मिलने वाला 
हम बहुरूपियों का ही होगा सदा बोलबाला 

(निहार रंजन, सेंट्रल, २० अप्रैल २०१३ )

Monday, April 15, 2013

कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!


ये मेरी मंजुल-मुखी,
खो ना जाए इस तमस में
इसलिए है छुपा रखा
मैंने इसे पंजर-कफस में
संग मेरे  स्वप्न में
संग है हर श्वास में
अरुणिमा सी मुदित करती
मेरे मन आकाश में
घूमती रहती है निशदिन
सींचती मुस्कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

जादुई इसकी छवि है
दहकते से इसके अधरज
देख जिसको मन ने बोला
कौन जाए इसको त्यज
मधुरिमा संसार की
संसार की रानाइयां
संसार की अटखेलियाँ
संसार की रुस्वाइयां
झनकती पाजेब इसकी
करती गुंजित कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

ये मेरी चंचल सखी
करती मुझे उद्भ्रांत है
और फिर चुपके से छूकर
कर देती मन शांत है
ये जो इसके नाज़-नखरे
और ये पुतली का जाल 
अलकों-पलकों की दुश्वारी
उस पर ये वाचाल
चमका देती मन में सूरज
हो आशा अवसान तो
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

ना गलबांही, ना आलिंगन
ना मेरे अधरों से चुम्बन  
मांगे बस बरसों से मुझसे
हर पल का निःस्वार्थ समर्पण 
फिर मेरे प्रतप्त ह्रदय को
करती है शीकर से सिंचन
मुस्काकर जब वो कह देती
धृतिमान हो! ‘करना करग्रहण’
ठहरे मेरे मन में फिर से  
ले आती तूफ़ान वो   
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ अप्रैल २०१३) 

Wednesday, April 10, 2013

गामवाली


(कोसी के धार-कछार के मध्य गामवाली की धरती)

 इब्तिदा चचा ग़ालिब के इस शेर से -

लिखता है 'असद' सोज़िशे दिल से सुखन-ऐ-गर्म  
ता रख ना सके कोई मेरे हर्फ़ पर अंगुश्त 

[अपने ह्रदय ताप से 'असद' इतने दहकते शेर लिखता है  
ताकि उन शब्दों पर कोई उंगुलियां न उठा सके ]

गामवाली


वो मेरे साथ, हाथों में हाथ लिए
मंद अलसाये डग भरते  
शानों पर लट बिखरा
होठों पर नीम-मुस्की लिए
सरेराह नहीं चल सकती

वो मेरे साथ ‘हाई-पॉइंट’ जाकर
अपने हाथों में थ्री वाइज मैन लेकर  
मेरे हाथों में रेड हेडेड स्ल्ट्स देकर  
एक ही घूँट में अपने-मेरे जीवन-विष का
शमन नहीं कर सकती

ना ही मेरे साथ ‘लकी लिप्स’ पर सारी रात थिरक 
‘हाई पॉइंट’ के बंद  होने वक़्त 
मदालसी आँखें और उत्ताप श्वास के साथ
कानों में शहद भरी ध्वनि लिए 
प्रणय निमंत्रण दे सकती है 
और इनकार पाकर, निर्विण्ण मन से   
मुझे समलैंगिक कह सकती है

उसे मधु-प्लुत होने की इतनी परवाह नहीं
कि अपने बच्चे को छाती से आहार ना दे सके
फिर दो साल बाद तलाक देकर
उसे पिता के पास धकेल,
कीमती कार और तलाक के पैसे लेकर
इस तरह दूर हो जाए
कि १९ साल तक याद ना करे  (शायद आजीवन!)

उसे इस तरह उन्मुक्तता की चाह भी नहीं
कि पैंसठ बरस की उम्र में सिलिकॉनी वक्षों के दम पर
कोई मेनका बन, कोई घृताची बन
किसी विश्वकर्मा को ‘पीड़ित’ करे
बहामास  जाने वाली किसी ‘क्रूज’ पर
‘वायग्रा’ उन्मादित पुरुष के साथ
परिरंभ करे, केलि-कुलेल करे

क्योंकि वो गामवाली है!

गामवाली,
यानि एक भारतीय नारी
जनकसुता सीता की मिटटी पर जन्मी
मिथिला की बेटी है
त्याग और अदम्य जीवटता की प्रतीक है

ये गामवाली बचपन से धर्मभीरु है
इसने ब्रम्हवैवर्तपुराण के आख्यान सुने है
कुंभीपाक के सजीव से चित्रों के दर्शन किये है  
धर्म और अधर्म का ज्ञान पाया है
विद्यापति के गीत गाये हैं
और पुष्पवती होते ही
स्वामी के बारे में सोचा है
उसे पाया है, उसे पूजा है

यही उसके जीवन का आदि और अंत है
कोई नारीवाद नहीं है उसमे
किसी बराबरी की चाह नहीं है उसमे
उसमे बस त्याग है,
आपादमस्तक दुकूल में छिपा
सलज्ज चेहरा है, पुरनूर आँखें है  
और यावज्जीवन की अभिलाषा
माँ बनकर, बहन बनकर, दादी बनकर
नानी बनकर, भाभी बनकर
कि उसके पास जो कुछ है वह बाँट देना है  

सच्चरित्रता का पालन किये
बिना झूठे वादे किये,
बिना झूठे बोल बोले
बिना झूठे आस दिए,
बिना अपनी गलत तस्वीर पेश किये
एक बंद कमरे में, ढिबरी की रौशनी में
रात भर अन्धकार पीती है
सुबह अपने देह पर धंसे काँटों को ढँककर
मुझसे मुस्कुराकर बात करती है
कोई नहीं जानता कितने कांटे हैं उसकी देह में
दर्द और ताप का शमन कोई सीखे तो उस गामवाली से

इसलिए प्रसूता होकर भी
मुस्कुराते चेहरे के साथ
खेत में वो काम करती है
और अपने छोटे बच्चे को,
दांत का दंश लगने तक,
छाती की आखिरी बूँद तक पिलाती है
और हो सके तो किसी भूखे बच्चे को,
अपने शीरखोर बच्चे से माफ़ी मांग,
छाती से लगा लेती है
उसे अपने पुष्ट छातियों की परवाह नहीं है.

उस गामवाली का देह
सुख के लिए नहीं है
उसकी संतानें हैं,
पति है, समाज है
रामायण है, गीता है
सुख चाहती वो इन्ही से,
सुख मांगती वो इन्ही से
इसलिए संयोगिनी या वियोगिनी होना
उसके लिए सम हैं
वह वासना के व्याल-पाश में 
लिपटकर रह सकती है,
उसके विषदंत तोड़ सकती है
उससे निकल सकती है
लेकिन मुझसे नहीं कह सकती
“वांट टू गो फॉर ‘डेजर्ट’ “

इतना सारा धन, प्यास, और झूठ
मानवीय संवेदनाएं ना छीन ले उससे
कुल्या होना न छीन ले उससे
धन्या से धृष्टा ना बना दे उसे
स्वकीया से परकीया ना बना दे उसे
इसीलिए वो अर्थ और काम को ताक पर रख
पैसठ बरस की उम्र में
धर्म और मोक्ष ढूँढती है
उसकी पहचान उसके देह से नहीं
उसके त्याग से है

इसी वजह से गामवाली पर
सरस गीत लिख पाना असंभव है  
उसपर कविता लिख पाना मुश्किल है  
त्याग की कवितायें बाज़ार में नहीं बिकती
त्याग से अवतंसित स्त्रियों का ये बाज़ार नहीं
बाज़ार में बिकती है रम्भा, मेनका
मदहोश करती अर्धनग्न सैंड्रा और रेबेका
पर मेरी रचनाओं में गामवाली जिंदा रहेगी
आखिर दूध का क़र्ज़ कौन उतार पाया है.

 (निहार रंजन, सेंट्रल, ८ अप्रैल २०१३)

(समर्पित उस गामवाली के नाम जिसने दूधपीबा वयस में एक दिन मुझे भूखा देखकर अपनी छाती से लगा लिया था. आभार उन तीन मित्रों का जिनके अनुभव इस रचना में हैं) 
 
*
गामवाली - गाँववाली 
हाई पॉइंट – एक मदिरालय का नाम
थ्री वाइज मैन – एक अल्कोहलीय पेय का नाम
रेड हेडेड स्ल्ट्स - एक अल्कोहलीय पेय का नाम
लकी लिप्स - क्लिफ रिचर्ड का मशहूर गीत
क्रूज – सैर सपाटे के लिए जाने वाला पनिया जहाज 

Wednesday, April 3, 2013

आशा का दीप

आशा का दीप


लौ दीप का अस्थिर कर जाता है
जब एक हवा का झोंका आता है
पल भर को तम होता लेकिन
फिर त्विषा से वो भर जाता है
इस दीप की है कुछ बात अलग
यह दीप नहीं बुझ पाता है

मैं तो स्थिर हो चलता हूँ
पर हिल जाता है भूतल
डगमग होते हैं पाँव मगर  
कर मेरे रहता दीप अटल    
लौ घटती-बढती इसकी लेकिन
यह दीप नहीं बुझ पाता  है

श्रमजल से सिंचित यह प्रतिपल
जाज्व्ल्यमान यह दीप अचल
बाधा के पतंगों से लड़कर
मुस्काता रहता है अविरल
पतंगा आता है, मर जाता है
पर दीप नहीं बुझ पाता  है

(निहार रंजन, सेंट्रल, २९ मार्च २०१३).

Wednesday, March 27, 2013

पहचान




(वोयेजर द्वारा करीब ६ खरब किलोमीटर दूर से ली गयी पृथ्वी की तस्वीर) 

पहचान 

विस्तृत अंतरिक्ष के  
एक दीप्त आकाशगंगा में
कण भी नहीं, कण के अंश जैसा
यही है पहचान अपनी धरती की 
और फिर इस वसुधा के
चौरासी लाख योनियों में
एक हम हैं, सोचो अपनी पहचान!

वही पहचान जिसके लिए
हम आप आज खड़े है
अपने झंडों के साथ 
जोरदार आवाज़ के साथ
बिना सोचे एक पल
डायनासोर का क्या हुआ?

भारी भरकम डायनासोर
जो अपने समय में लड़ता होगा
आपस में और तुच्छ जीवों के साथ
लेकिन समय का चक्र
ढाल गया उसे मिटटी-पत्थर के अन्दर
और साथ में  उसकी पहचान

 लेकिन हम आप  होकर अनभिज्ञ
लगे हैं एक दूसरे को परास्त करने
एक दूसरे के रास्तों में गड्ढा खोदने
अपनी ज़िन्दगी खोकर, पर-पीड़ा के लिए 
ये जानते हुए कि हम सबका
आखिरी ठिकाना एक  है

वही ठिकाना जहाँ पर  जीवाणु-विषाणु
ऑक्सीकरण-अवकरण साथ मिल  
ढाल जाते हैं  हमें एक सांचे में
जहाँ ना ख़म, ना जंघा, न ग्रीवा
और पत्थर मिटटी के दरम्यान
परतों में गुम होती है हमारी पहचान.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १६ मार्च २०१३)

Saturday, March 23, 2013

फागुनी संवाद

मेरे गाँव में देवर और भाभी के बीच फाग-लड़ाई की साल भर प्रतीक्षा होती है. ये संवाद उसी पृष्टभूमि में है. सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनायें.


अगले बरस 


बोल-बोल मो से देवर अबरबा !

फागुन बीता-बीता जाए
तोरी कोई खबर ना आई
का संग खेलूँ होरी मैं अब
का संग करू मैं फाग-लड़ाई

बोल-बोल मो से देवर अबरबा !

आज बता दे नाम तू उसका
जो रोके है मो से तुझको
कौन फिरंगी प्रीत के डोरे
फेंक के तुझको फांस ले जाई

बोल बोल मो से देवर अबरबा !

हम देते ललकारा तो से
अपनी सारी बहिनन के संग
देखें कौन मधुपुर से आके
तोहे  चीर-हरण से बचाई

बोल-बोल मो से देवर अबरबा !
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का मैं बोलूं तों से भौजी
अपने अंतर्मन की प्यास
साल चौदहवां बीत रहा है
लगता है जैसे एक वनवास

ना मुझपे है फिरंगी की डोरी
है सच पर, है एक मुझे प्रीत
जिसके लिए मैंने साल गुज़ारे
कैसे छोडूं अधूरा वो गीत

लेते है ललकारा हम सब
लेकर कुछ “कैफ़ी” के गुण
अगले बरस आपके नैहर में
“इश्क बाटेंगे, जितना है हुस्न”

(निहार रंजन , सेंट्रल,  २२ मार्च २०१३ )

* मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी जब १९९० के दशक में करांची गए थे तो वहां के लोगों से उन्होंने कहा था
" ये मत समझना  हम खाली हाथ आये हैं
  हैं जितना हुस्न इस बस्ती में हम उतना इश्क लाये हैं "

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अबरबा = आवारा
भौजी = भाभी
मधुपुर = मथुरा