Monday, April 15, 2013

कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!


ये मेरी मंजुल-मुखी,
खो ना जाए इस तमस में
इसलिए है छुपा रखा
मैंने इसे पंजर-कफस में
संग मेरे  स्वप्न में
संग है हर श्वास में
अरुणिमा सी मुदित करती
मेरे मन आकाश में
घूमती रहती है निशदिन
सींचती मुस्कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

जादुई इसकी छवि है
दहकते से इसके अधरज
देख जिसको मन ने बोला
कौन जाए इसको त्यज
मधुरिमा संसार की
संसार की रानाइयां
संसार की अटखेलियाँ
संसार की रुस्वाइयां
झनकती पाजेब इसकी
करती गुंजित कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

ये मेरी चंचल सखी
करती मुझे उद्भ्रांत है
और फिर चुपके से छूकर
कर देती मन शांत है
ये जो इसके नाज़-नखरे
और ये पुतली का जाल 
अलकों-पलकों की दुश्वारी
उस पर ये वाचाल
चमका देती मन में सूरज
हो आशा अवसान तो
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

ना गलबांही, ना आलिंगन
ना मेरे अधरों से चुम्बन  
मांगे बस बरसों से मुझसे
हर पल का निःस्वार्थ समर्पण 
फिर मेरे प्रतप्त ह्रदय को
करती है शीकर से सिंचन
मुस्काकर जब वो कह देती
धृतिमान हो! ‘करना करग्रहण’
ठहरे मेरे मन में फिर से  
ले आती तूफ़ान वो   
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ अप्रैल २०१३) 

Wednesday, April 10, 2013

गामवाली


(कोसी के धार-कछार के मध्य गामवाली की धरती)

 इब्तिदा चचा ग़ालिब के इस शेर से -

लिखता है 'असद' सोज़िशे दिल से सुखन-ऐ-गर्म  
ता रख ना सके कोई मेरे हर्फ़ पर अंगुश्त 

[अपने ह्रदय ताप से 'असद' इतने दहकते शेर लिखता है  
ताकि उन शब्दों पर कोई उंगुलियां न उठा सके ]

गामवाली


वो मेरे साथ, हाथों में हाथ लिए
मंद अलसाये डग भरते  
शानों पर लट बिखरा
होठों पर नीम-मुस्की लिए
सरेराह नहीं चल सकती

वो मेरे साथ ‘हाई-पॉइंट’ जाकर
अपने हाथों में थ्री वाइज मैन लेकर  
मेरे हाथों में रेड हेडेड स्ल्ट्स देकर  
एक ही घूँट में अपने-मेरे जीवन-विष का
शमन नहीं कर सकती

ना ही मेरे साथ ‘लकी लिप्स’ पर सारी रात थिरक 
‘हाई पॉइंट’ के बंद  होने वक़्त 
मदालसी आँखें और उत्ताप श्वास के साथ
कानों में शहद भरी ध्वनि लिए 
प्रणय निमंत्रण दे सकती है 
और इनकार पाकर, निर्विण्ण मन से   
मुझे समलैंगिक कह सकती है

उसे मधु-प्लुत होने की इतनी परवाह नहीं
कि अपने बच्चे को छाती से आहार ना दे सके
फिर दो साल बाद तलाक देकर
उसे पिता के पास धकेल,
कीमती कार और तलाक के पैसे लेकर
इस तरह दूर हो जाए
कि १९ साल तक याद ना करे  (शायद आजीवन!)

उसे इस तरह उन्मुक्तता की चाह भी नहीं
कि पैंसठ बरस की उम्र में सिलिकॉनी वक्षों के दम पर
कोई मेनका बन, कोई घृताची बन
किसी विश्वकर्मा को ‘पीड़ित’ करे
बहामास  जाने वाली किसी ‘क्रूज’ पर
‘वायग्रा’ उन्मादित पुरुष के साथ
परिरंभ करे, केलि-कुलेल करे

क्योंकि वो गामवाली है!

गामवाली,
यानि एक भारतीय नारी
जनकसुता सीता की मिटटी पर जन्मी
मिथिला की बेटी है
त्याग और अदम्य जीवटता की प्रतीक है

ये गामवाली बचपन से धर्मभीरु है
इसने ब्रम्हवैवर्तपुराण के आख्यान सुने है
कुंभीपाक के सजीव से चित्रों के दर्शन किये है  
धर्म और अधर्म का ज्ञान पाया है
विद्यापति के गीत गाये हैं
और पुष्पवती होते ही
स्वामी के बारे में सोचा है
उसे पाया है, उसे पूजा है

यही उसके जीवन का आदि और अंत है
कोई नारीवाद नहीं है उसमे
किसी बराबरी की चाह नहीं है उसमे
उसमे बस त्याग है,
आपादमस्तक दुकूल में छिपा
सलज्ज चेहरा है, पुरनूर आँखें है  
और यावज्जीवन की अभिलाषा
माँ बनकर, बहन बनकर, दादी बनकर
नानी बनकर, भाभी बनकर
कि उसके पास जो कुछ है वह बाँट देना है  

सच्चरित्रता का पालन किये
बिना झूठे वादे किये,
बिना झूठे बोल बोले
बिना झूठे आस दिए,
बिना अपनी गलत तस्वीर पेश किये
एक बंद कमरे में, ढिबरी की रौशनी में
रात भर अन्धकार पीती है
सुबह अपने देह पर धंसे काँटों को ढँककर
मुझसे मुस्कुराकर बात करती है
कोई नहीं जानता कितने कांटे हैं उसकी देह में
दर्द और ताप का शमन कोई सीखे तो उस गामवाली से

इसलिए प्रसूता होकर भी
मुस्कुराते चेहरे के साथ
खेत में वो काम करती है
और अपने छोटे बच्चे को,
दांत का दंश लगने तक,
छाती की आखिरी बूँद तक पिलाती है
और हो सके तो किसी भूखे बच्चे को,
अपने शीरखोर बच्चे से माफ़ी मांग,
छाती से लगा लेती है
उसे अपने पुष्ट छातियों की परवाह नहीं है.

उस गामवाली का देह
सुख के लिए नहीं है
उसकी संतानें हैं,
पति है, समाज है
रामायण है, गीता है
सुख चाहती वो इन्ही से,
सुख मांगती वो इन्ही से
इसलिए संयोगिनी या वियोगिनी होना
उसके लिए सम हैं
वह वासना के व्याल-पाश में 
लिपटकर रह सकती है,
उसके विषदंत तोड़ सकती है
उससे निकल सकती है
लेकिन मुझसे नहीं कह सकती
“वांट टू गो फॉर ‘डेजर्ट’ “

इतना सारा धन, प्यास, और झूठ
मानवीय संवेदनाएं ना छीन ले उससे
कुल्या होना न छीन ले उससे
धन्या से धृष्टा ना बना दे उसे
स्वकीया से परकीया ना बना दे उसे
इसीलिए वो अर्थ और काम को ताक पर रख
पैसठ बरस की उम्र में
धर्म और मोक्ष ढूँढती है
उसकी पहचान उसके देह से नहीं
उसके त्याग से है

इसी वजह से गामवाली पर
सरस गीत लिख पाना असंभव है  
उसपर कविता लिख पाना मुश्किल है  
त्याग की कवितायें बाज़ार में नहीं बिकती
त्याग से अवतंसित स्त्रियों का ये बाज़ार नहीं
बाज़ार में बिकती है रम्भा, मेनका
मदहोश करती अर्धनग्न सैंड्रा और रेबेका
पर मेरी रचनाओं में गामवाली जिंदा रहेगी
आखिर दूध का क़र्ज़ कौन उतार पाया है.

 (निहार रंजन, सेंट्रल, ८ अप्रैल २०१३)

(समर्पित उस गामवाली के नाम जिसने दूधपीबा वयस में एक दिन मुझे भूखा देखकर अपनी छाती से लगा लिया था. आभार उन तीन मित्रों का जिनके अनुभव इस रचना में हैं) 
 
*
गामवाली - गाँववाली 
हाई पॉइंट – एक मदिरालय का नाम
थ्री वाइज मैन – एक अल्कोहलीय पेय का नाम
रेड हेडेड स्ल्ट्स - एक अल्कोहलीय पेय का नाम
लकी लिप्स - क्लिफ रिचर्ड का मशहूर गीत
क्रूज – सैर सपाटे के लिए जाने वाला पनिया जहाज 

Wednesday, April 3, 2013

आशा का दीप

आशा का दीप


लौ दीप का अस्थिर कर जाता है
जब एक हवा का झोंका आता है
पल भर को तम होता लेकिन
फिर त्विषा से वो भर जाता है
इस दीप की है कुछ बात अलग
यह दीप नहीं बुझ पाता है

मैं तो स्थिर हो चलता हूँ
पर हिल जाता है भूतल
डगमग होते हैं पाँव मगर  
कर मेरे रहता दीप अटल    
लौ घटती-बढती इसकी लेकिन
यह दीप नहीं बुझ पाता  है

श्रमजल से सिंचित यह प्रतिपल
जाज्व्ल्यमान यह दीप अचल
बाधा के पतंगों से लड़कर
मुस्काता रहता है अविरल
पतंगा आता है, मर जाता है
पर दीप नहीं बुझ पाता  है

(निहार रंजन, सेंट्रल, २९ मार्च २०१३).

Wednesday, March 27, 2013

पहचान




(वोयेजर द्वारा करीब ६ खरब किलोमीटर दूर से ली गयी पृथ्वी की तस्वीर) 

पहचान 

विस्तृत अंतरिक्ष के  
एक दीप्त आकाशगंगा में
कण भी नहीं, कण के अंश जैसा
यही है पहचान अपनी धरती की 
और फिर इस वसुधा के
चौरासी लाख योनियों में
एक हम हैं, सोचो अपनी पहचान!

वही पहचान जिसके लिए
हम आप आज खड़े है
अपने झंडों के साथ 
जोरदार आवाज़ के साथ
बिना सोचे एक पल
डायनासोर का क्या हुआ?

भारी भरकम डायनासोर
जो अपने समय में लड़ता होगा
आपस में और तुच्छ जीवों के साथ
लेकिन समय का चक्र
ढाल गया उसे मिटटी-पत्थर के अन्दर
और साथ में  उसकी पहचान

 लेकिन हम आप  होकर अनभिज्ञ
लगे हैं एक दूसरे को परास्त करने
एक दूसरे के रास्तों में गड्ढा खोदने
अपनी ज़िन्दगी खोकर, पर-पीड़ा के लिए 
ये जानते हुए कि हम सबका
आखिरी ठिकाना एक  है

वही ठिकाना जहाँ पर  जीवाणु-विषाणु
ऑक्सीकरण-अवकरण साथ मिल  
ढाल जाते हैं  हमें एक सांचे में
जहाँ ना ख़म, ना जंघा, न ग्रीवा
और पत्थर मिटटी के दरम्यान
परतों में गुम होती है हमारी पहचान.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १६ मार्च २०१३)

Saturday, March 23, 2013

फागुनी संवाद

मेरे गाँव में देवर और भाभी के बीच फाग-लड़ाई की साल भर प्रतीक्षा होती है. ये संवाद उसी पृष्टभूमि में है. सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनायें.


अगले बरस 


बोल-बोल मो से देवर अबरबा !

फागुन बीता-बीता जाए
तोरी कोई खबर ना आई
का संग खेलूँ होरी मैं अब
का संग करू मैं फाग-लड़ाई

बोल-बोल मो से देवर अबरबा !

आज बता दे नाम तू उसका
जो रोके है मो से तुझको
कौन फिरंगी प्रीत के डोरे
फेंक के तुझको फांस ले जाई

बोल बोल मो से देवर अबरबा !

हम देते ललकारा तो से
अपनी सारी बहिनन के संग
देखें कौन मधुपुर से आके
तोहे  चीर-हरण से बचाई

बोल-बोल मो से देवर अबरबा !
 ...................................................
का मैं बोलूं तों से भौजी
अपने अंतर्मन की प्यास
साल चौदहवां बीत रहा है
लगता है जैसे एक वनवास

ना मुझपे है फिरंगी की डोरी
है सच पर, है एक मुझे प्रीत
जिसके लिए मैंने साल गुज़ारे
कैसे छोडूं अधूरा वो गीत

लेते है ललकारा हम सब
लेकर कुछ “कैफ़ी” के गुण
अगले बरस आपके नैहर में
“इश्क बाटेंगे, जितना है हुस्न”

(निहार रंजन , सेंट्रल,  २२ मार्च २०१३ )

* मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी जब १९९० के दशक में करांची गए थे तो वहां के लोगों से उन्होंने कहा था
" ये मत समझना  हम खाली हाथ आये हैं
  हैं जितना हुस्न इस बस्ती में हम उतना इश्क लाये हैं "

 --------------------------------------------------------------------------------
अबरबा = आवारा
भौजी = भाभी
मधुपुर = मथुरा 

Friday, March 15, 2013

प्यार की वैज्ञानिक कविता

प्यार की वैज्ञानिक कविता
स्मृति के चुम्बक पर
बारहा लौट आते हो
लौह दिल के मालिक
यास दिए जाते हो

मन नाभिक के पास   
इलेक्ट्रान बने घूमते हो
आतंरिक कक्षा में बने
ना समीप ना दूर होते हो
क्यों मेरे ह्रदय कक्ष में
असीर हुए जाते हो
लौह दिल के मालिक
त्रास दिए जाते हो

अम्ल दग्ध मैं हुई हूँ
क्षार क्षरित मैं जियी हूँ
लवण की है चाह मुझको
लावण्यता समेटी खड़ी हूँ
मन में सान्द्र गंधकाम्ली
तासीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
प्यास दिए जाते हो

कब सुनोगे बाबूजी! संभालो
जरा  प्रेम-टीलोमर बचालो
प्यार के इस कोशिका को
एक नया जीवन दिला दो
इस बिरहन राधिके को
पीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
रास किये  जाते हो

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२ मार्च २०१३)

नाभिक =  Nucleus
आतंरिक कक्षा = Core shell
सान्द्र = Concentrated
गंधकाम्ल = Sulfuric acid  ( Besides being an acid, it is also a strong dehydrant).
टीलोमर = A repeat sequence of DNA bases found  at the chromosomal ends. It gets shortened after every cell division. A cell dies when the  telomere gets really short.
कोशिका = cell.

Saturday, March 9, 2013

सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो नदियाँ क्या कहती है!


चलती रहती वह हर क्षण अपने पथ पर
हर तृषित का करती है वो रसमय अधर
पावस शरद की परवाह नहीं करती है वो
उत्तुंग शिखर से च्युत हो आह नहीं करती है वो
बेहैफ धरा पर चाल लिए वो अमलारा
कल-छल-कल-छल बढती जाती उसकी धारा
निरुद्येश्य क्या वो यूँ ही चलती है ?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

हिमगिरि की अप्रतुल सुन्दरता तज बढ़ जाती अकेली
उद्भव से अपने जीवन में पाती है राहें पथरीली
चट्टानों से मिलते जुलते गिरते उठते हिलते
निर्जन जंगल में नाद किये बढ़ते चलते
कांचनार और खार से निःसंकोच करती अभिसार
जलचर थलचर और नभचर को देते प्यार
धरती पर हमसे मिलने आ जाती हैं   
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

वह नहीं मांगती मूल्य प्यास बुझाने की
वो नहीं करती है रार अजसी हो जाने की
ईश्वर अभिदत्त अमलता वो लिए हुए
वर्णों योनि में बिना कोई विभेद किये
जो बटोही आ जाता प्यासा उसके तीर
हरदम हाजिर रहती है वो लिए विपुल नीर
जलधि मेल को अविरत चल बढ़ जाती है
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो हम तुम जीवन में बिन त्याग किये
निश्छल, निर्लोभी हिय बिन परमार्थ किये
अवरोधों से दुबक, छोटे गलियारों से निकल
बिना पिये जीवन में थोड़ा सा काराजल
सागरमाथा चढने को रहते हम अधीर
बिन त्यग्जल तजे बने जाते है वाग्वीर  
पर नदियाँ क्या सहती है, कुछ कहती है?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

दुर्गम सी अपनी राहें भी हो तो चलते जाओ
और जो मिले पंथ में प्रेम उसे देते जाओ
द्वेष लिए मन में, लिए अथाह स्वार्थ
नाहक न जियो मनुज जीवन अपार्थ
पिया (सागर) मिलन को इकलौता लक्ष्य मान
चलते ही रहना जीवन में करते उत्थान
सन्देश यही देती हमे वहती है
शायद  नदियाँ  यही कहती है!

(निहार रंजन, सेंट्रल, ९ मार्च २०१३)

Friday, March 1, 2013

गर्भवती




गर्भवती 



सुबह अपनी प्रयोगशाला पहुँचा 
तो अपने नियत स्थान से "शिकागोवाली" गायब थी 
बस्ता रखा और  अपने घुलते रसायनों  को परखने लगा  
 अचानक "शिकागोवाली" चहकती लैब में दाखिल हुई
स्पैनिश में चहक चहक बतियाती रही 
और मैं अपने काम में निमग्न हो गया 

अचानक किसी ने पीठ  छुआ 
देखा "शिकागोवाली" गले में मास्क लटकाए खड़ी है 
मुस्कान बिखेरते पूछती है-बोलो मैं खुश क्यों हूँ ?
मैंने मज़ाक में कहा, तुम तो "मामासिता" हो 
किसी ने तुम्हारी खूबसूरती पर कविता लिखी होगी 
वो हंसती रही और बस हंसती रही
अचानक से मैंने पूछा
 सालों से रसायनों का ज़हर पीती  हो 
कभी पहले नहीं देखा मास्क लगाये हुए? 
जवाब आता है -अब मेरे अन्दर दो जानें हैं !

 "शिकागोवाली" सुबह से चहक चहक अपनी माँ से 
इस नए जान के बारे में कह रही थी
और उसकी माँ फूले नहीं समा रही थी
पहली  बार जो वो नानी बनने  वाली थी 
बोल रही थी मैं तो नानी बनने का सपना बिलकुल भूल चुकी थी 

पीएचडी की दीर्घता  से व्याकुल होकर 
और मातृत्व इच्छा से आकुल होकर 
"शिकागोवाली" ने कुंवारी माँ बनने का निश्चय किया था 
दिन भर लोग बधाइयां देने आते रहे 
किसी के मन ये सवाल नहीं था 
की बच्चा जायज है नाजायज 
किसी के मन में तिरस्कार नहीं था 
किसी ने नहीं कहा कि "शिकागोवाली" कुलटा है 
सब जानते थे "शिकागोवाली" बहुत नेक, मददगार इंसान है 
सब जानते थे "शिकागोवाली" कुंवारी माँ बन के भी 
वैसी ही नेक और मददगार रहेगी 

और एक तरफ अतीत को वो दृश्य भी याद करता हूँ 
जहां जानबूझकर, अज्ञानतावश या बलात 
जब कोई लड़की कुंवारी गर्भवती हो  जाती है 
तो  उसके नरक जाने की रसीद कट जाती  है 
उसके शील, चरित्र और परिवार की  धज्जियां उड़ती हैं 
बिना ये जाने कि उस कुंवारी लड़की के कोख में बच्चा आया कैसे 
फिर वो दोनों माँ  और बच्चा, आजन्म दाग लिए फिरते है 

बात सही और गलत की नहीं है 
बात है एक ही परिस्थिति को दो नजरिये से देखने की 
दो समाजों के अलग नजरिये की  
 एक तरफ स्वीकार्यता  है और दूसरी तरफ मौत का फरमान 
एक तरफ सब सामन्य है वहीँ दूसरी तरफ भूचाल 

कोठे के अन्दर  देह परोसती हर वेश्या  की कहानी एक नहीं होती 
उसमे भी इंसान होते हैं मेरी और आपकी तरह 
और ये भी सच नहीं की अपना पेट  काटकर जीनेवाला कंजूस  होता है
 शायद  वो अपने बीमार माँ की दवा के पैसे जोड़ता है 
 कुंवारी माँ कामान्धी  कुलटा नहीं होती
परिस्थिति जाने  बिना हम कितनी सहजता से लोगों को  वर्गीकृत करते हैं 

पर ये जानेगा कौन और क्यों ?
जहाँ नयी नवेली ब्याही मुनिया 
मातृत्व की भनक पाते ही 
बंद हो जाती है संकुचित होकर लाज के मारे 
अपनों से भी छुपी रहती है
क्योंकि वो गर्भवती हो गयी है.

(निहार रंजन , सेंट्रल, २८ फ़रवरी २०१३ )

*मामासिता (आकर्षक लड़की) 

Saturday, February 23, 2013

ज़िन्दगी के रंग

ज़िन्दगी के रंग 

गाँव के अन्दर, शहर के बीच और देश के बाहर 
कभी ठेस खाकर कभी प्यार पाकर 
ज़िन्दगी की राह पर चलते सँभलते 
कभी लड़खड़ाते , कभी ठीक चलते 
ज़िन्दगी ने जीवन के कई रंग देखने को दिए 
ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सीखने को दिए 

घूंघट गिरी थी, वो उठ गयी फिर हट गयी 
लीपा सिन्दूर हटा और फिर ज़ुल्फ़ हट गए 
माँ का दूध हटा , बोतलों ने जगह ली और फोर्मुले आये 
रिश्तों की परिभाषाएं बदली, फूल हावी हो गए ज़िन्दगी में 
अस्तपताल में दम खींचते बाप को एक गुच्छा फूल काफी था सुधि लेने को 
और मैं ठेठ गंवार!  हमने तो बस फूलों को तोडना जाना है 

ना  शादी की रस्में, न उनका प्रयोजन 
कोई जन्म ले  तो ले,  भगवान तो देख ही  लेंगे उसे 
और ज़िन्दगी की रफ़्तार ऐसी तेज़ 
कि ज़िन्दगी दौड़ते-दौड़ते बीच में ही गुम  हो गयी कहीं 
पैकेट  में खाना, एक हाथ में पेय और दूसरा  हाथ स्टीयरिंग पर 
१०० किलोमीटर की रफ़्तार में दौडती ज़िन्दगी 
और तभी कौंध जाता है यादों में  चाँदनी चौक  का वो चाटवाला 
शाहजहाँ रोड का वो तिवारी पान भण्डार 
और खान मार्किट में  बरिस्ता की कॉफ़ी 
परखनलियों में रसायनों का बदलता रंग 
यार दोस्तों का मजमा और बेफिक्री के दिन 
और उससे भी पीछे धान के वो हरे पीले खेत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत 

पर रफ़्तार की ज़िन्दगी ने ज़िम्मेदारी दी
रफ़्तार की ज़िन्दगी ने आत्मविश्वास दिया 
ज़िन्दगी को उन्मुक्त होकर बहते रहने 
प्यास हरते रहने की तालीम 
कोई ज़िन्दगी पूरी अच्छी नहीं,
कोई ज़िन्दगी बिलकुल बुरी नहीं  
ज़िन्दगी की प्यास तो कभी बुझती नहीं 
ज़िन्दगी अच्छा या बुरा बनाना तो अपने हाथ में है 
धीमे चलकर संतुलन बनाना आसान है 
पर रफ़्तार  में संतुलन बना के चलना एक सीख 

पर जो छूट गया बहुत पीछे वो है  मेरा गाँव
उसकी अलमस्त हवा, रेडियो पर बजता संगीत 
आटे के  मिल की हर शाम वो  पुक-पुक 
और शाम को लौटते बैलों का गले मिला कर चलना  
 स्कूल से लौटने के वक़्त गली के मुहाने पर खड़ी मेरी  माँ 
और हुरदंग मचाते लड़कपन के साथी 
लालटेन की रौशनी में  कीट-पतंगों के साथ ज्ञान अर्जन की जंग
कैलकुलस की  छान बीन में बावन पुस्तिकाओं के रंगे पन्ने 
और अपने पतंगों के लिए  हाथ से मांझा किये धागे 
जीते पूरे पांच सौ कंचे 

और अब वही गाँव की मिटटी, 
जिस का कण-कण मेरे रुधिर होकर बहता है, 
वापस लौट आने को कहती  है
और सेंट्रल साइंस लाइब्रेरी के बाहर का चायवाला
२/३ के लिए पूछता है बार बार 
पर कोसी नदी की घाट से दूर कूपर नदी की घाट बैठ 
मैं कविता लिखता जा रहा हूँ 
मैं कवि  बन गया हूँ!

(निहार रंजन, सेंट्रल, २३ फ़रवरी २०१३  )

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?



महान निर्देशक गुरु दत्त के फिल्मों का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ. उनकी मशहूर  फिल्म 'प्यासा' कई बार देखी है.  फिल्म के  आखिरी दृश्य में वो कोठे पर पहुँच वहीदा रहमान को बुलाते हैं और "साथ चलोगी?" प्रश्न के साथ   फिल्म का समापन हो जाता है.  यह  कविता उसी  फिल्म प्यासा के आखिरी दृश्यों प्रेरित है और इस महान कलाकार को समर्पित है.

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?

उबड़-खाबड़ कंकड़ पत्थर, यही मार्ग का परिचय है
ना पेड़ों की छाया ना पनघट चलो अगर दृढ निश्चय है   

हम नहीं ख्वाब दिखाने वाले इन्द्रलोकी काशानों के
अपनी बगिया में नहीं मिलती खुशबू जूही बागानों के

ना रोशन हैं राहें अपनी, पल पल ही टकराना होगा
गिरते उठते गिरते उठते इस पथ पर तुम्हे जाना होगा   

भूखे प्यासे दिन गुजरेंगे,  भूखी प्यासी रातें होंगी  
तेज हवाएं भीषण गर्जन साथ लिए बरसातें होंगी

जीवन ताप परीक्षा होगी, होगी असलियत की पहचान
निखर कर बाहर निकलोगी गर हो तुम स्वर्ण समान  

अपने हिस्से में कुछ दागदार फूल है, कर दूं अर्पण?
पर अन्दर अथाह प्रेम है, खोलो पट देखो मेरा मन   

इस अनिश्चय के डगर में, चलोगी पकड़ तुम हाथ मेरे ?
आज कह दो तुम प्रिये गर चल सकोगी साथ मेरे

निहार रंजन, सेंट्रल, २-२३-२०१३ 



Sunday, February 17, 2013

कवि का सच

कवि का सच 


लोग कहते हैं 
कविता झूठी है 
कल्पना का सागर है 
जिसका यथार्थ से कुछ वास्ता नहीं

लोग कहते हैं  
कवि कविता की आड़ में अपना भड़ास निकालते हैं
अपनी  ज़िन्दगीके अँधेरे को छदम रूप देकर कविता का नाम देते है 
अपनी असहायता को  झूठे शब्द देकर हुंकार का नाम देते हैं

लोग कहते हैं 
कविता ने  झूठी आस दी है 
उजालों  के स्वप्न दिए है     
दिल को खुश रहने का ख़याल दिया है, पर हकीकत?

लोग कहते हैं 
कवि रसिया है 
कविता के कंधे पर धनुष रख आखेट करता है 
अपनी अतृप्त इच्छाओं को दुनिया के दर्द कहता है 

लोग कहते हैं 
कविता बिन दर्द हो ही नहीं सकती , 
रामायण देखो, "ग़ालिब" का दीवान देखो 
"मजाज़" के टूटे अरमान देखो 

लोग कहते हैं 
कविता में शराब की बातें है 
कविता में चाटुकारिता है 
कविता हारे हुए (bunch of losers) पढ़ते है 


लोग कहते हैं 
कविता बेकार है 
दुनिया में सब कुछ अच्छा है 
बस नजरिये में फर्क की ज़रुरत है 

लेकिन काश!!

कविता सब समझ पाते 
सब यह समझ पाते कि
कवि ह्रदय का विस्तार निस्सीम है 
इसलिए उसमे अपरिमित  दर्द है 

सब यह भी समझ पाते  
जब दिल्ली में असुर नाचते है 
तो कवि ह्रदय नुकीले जूतों  से रौंदा जाता है 
और दर्द की वेदना वैसी ही होती है जैसे किसी स्व का हादसा हो 

हाँ दुनिया अच्छी है 
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में उजाले है 
आराम है, पैसे है और दुनिया बदलने का झूठा दंभ है 
अब किसी को रोटी नहीं मिलती तो मेरी नींद क्यों जाए 

लेकिन अपनी ज़िन्दगी के उजालों से हट के देखता है कौन 
रंगीनियों की क्षणिकता और श्वेत श्याम के स्थायित्व को देखता है कौन 
न्यूयॉर्क की गलियों में वक्षोभ से औरत की कीमत होते देख दुखता है कौन 
वही कोई "शराबी", "पागल", "हारा हुआ" कवि  

कौन कहता है  दुनिया में दर्द नहीं है 
लेकिन दर्द को देखने की लिए आँखें चाहिए
उनमे ख़ास ज्योति चाहिए 
एक ख़ास जिगर चाहिए 

और वो रौशनी तभी आती है 
जब सब अपने स्वजनों की माया पृथक कर 
अपने प्रियतम के आलिंगन से विमुक्त हो 
उस असहाय को भी देखें जिसका आंत जल रहा है 

वैसी ज़िन्दगी भी देखे 
जिसे समय का चक्र एक पल में लूट लेता है 
और एक पल में चहचहाती ज़िन्दगी में वीराना आ जाता है 
सालों की समेटी ख़ुशी एक पल में काफूर होती है 

लेकिन इसके लिए चाहिए मन, ह्रदय का विस्तार 
दृगों को वही ख़ास ज्योति 
और अपने स्वार्थ से इतर एक दुनिया का एहसास 
जहां घोर अँधेरा पसरा है 

और मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि 
ना मुझे मुहब्बत ने ह्रदय चाक किया है 
ना मेरी दुनिया में अँधेरे हैं 
और ना ही शराब का मैं गुलाम हूँ 

फिर भी दिल में  दर्द है 
क्योंकि दर्द जीवन का सच है, स्थायी या अल्पकालिक 
क्योकि "दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त"
क्योंकि ह्रदय कवि का है, आहनी नहीं 

(निहार रंजन, सेंट्रल, १७-२-२०१३ )










रात की बात



रात की बात

जब आसमाँ  से गुम हो निशाँ आफताब के
हो माह में डूबा ज़माना, रात को आना

पाओगी सितारों की झलक, जुगनू भी मिलेंगे
उस पर यह मौसम सुहाना, रात को आना

जो सादादिली तुझमे, शोखी है, अदा है
हो जाए न ये जग दीवाना, रात को आना

सौ लोग है हाजिर लिए खंज़र वो अपने हाथ
उनसे जरा खुद को बचाना, रात को आना

कुछ हर्फ़ हैं जो अब तलक उतरे ना हलक से
आज गाऊँगा दिलकश तराना, रात को आना  

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१०-२०१२ )

Aftaab  = Sun
Maah   = Moon
Shokhi  = Playfulness
Harf    = Words
Halaq   = Throat



Saturday, February 2, 2013

जवाब पत्थर का

पत्थर से गुफ्तगू
पत्थर से मैंने सबब पूछा
क्यों इतने कठोर हो
निष्ठुर हो, निर्दय हो  
खलनायकी के पर्याय हो

कभी किसी के पाँव लगते हो तो ज़ख्म
कभी किसी के सर लगते हो तो ज़ख्म
और उससे भी दिल न भरे तो अंग-भंग
क्या मज़ा है उसमे कुछ बताओ तो?

तुम दूर रहते हो तो सवाल रहते हो
पास तुम्हारे आता हूँ तो मूक रहते हो
तुम्हारे बीच आता हूँ तो पीस डालते हो
तुझपे वार करता हूँ तो चिंगारियाँ देते हो  

आज मेरी चंपा भी कह उठी मुझसे “संग-दिल”
अपनी बदनामी से कभी नफरत नहीं हुई तुम्हे?
काश! लोग तुम्हें माशूका की प्यारी उपमाओं में लाते
उनके घनेरी काकुलों के फुदनों में तुम्हें बाँध देते

उनके आरिज़ों की दहक के मानिंद न होते गुलाब
पत्थर खिल उठते जब खिल उठते उनके शबाब
मिसाल-ऐ-ज़माल भी देते लोग तो तेरे ही नाम से
हो जाता दिल भी शादमाँ तेरे ही नाम से

ये सब सुनकर पत्थर का मौन गया टूट
और मुझे जवाब मिला-
"ताप और दाब से बनी है मेरी ज़िन्दगी
मैं कैसे फूल बरसा दूँ प्यारे!"

निहार रंजन, सेंट्रल, (२-२-२०१३)

सबब = कारण 
संग = पत्थर
काकुल= लम्बे बाल
आरिज़ = गाल
ज़माल = रौशनी
शादमाँ = प्रसन्न, आह्लादित