Saturday, March 9, 2013

सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो नदियाँ क्या कहती है!


चलती रहती वह हर क्षण अपने पथ पर
हर तृषित का करती है वो रसमय अधर
पावस शरद की परवाह नहीं करती है वो
उत्तुंग शिखर से च्युत हो आह नहीं करती है वो
बेहैफ धरा पर चाल लिए वो अमलारा
कल-छल-कल-छल बढती जाती उसकी धारा
निरुद्येश्य क्या वो यूँ ही चलती है ?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

हिमगिरि की अप्रतुल सुन्दरता तज बढ़ जाती अकेली
उद्भव से अपने जीवन में पाती है राहें पथरीली
चट्टानों से मिलते जुलते गिरते उठते हिलते
निर्जन जंगल में नाद किये बढ़ते चलते
कांचनार और खार से निःसंकोच करती अभिसार
जलचर थलचर और नभचर को देते प्यार
धरती पर हमसे मिलने आ जाती हैं   
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

वह नहीं मांगती मूल्य प्यास बुझाने की
वो नहीं करती है रार अजसी हो जाने की
ईश्वर अभिदत्त अमलता वो लिए हुए
वर्णों योनि में बिना कोई विभेद किये
जो बटोही आ जाता प्यासा उसके तीर
हरदम हाजिर रहती है वो लिए विपुल नीर
जलधि मेल को अविरत चल बढ़ जाती है
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो हम तुम जीवन में बिन त्याग किये
निश्छल, निर्लोभी हिय बिन परमार्थ किये
अवरोधों से दुबक, छोटे गलियारों से निकल
बिना पिये जीवन में थोड़ा सा काराजल
सागरमाथा चढने को रहते हम अधीर
बिन त्यग्जल तजे बने जाते है वाग्वीर  
पर नदियाँ क्या सहती है, कुछ कहती है?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

दुर्गम सी अपनी राहें भी हो तो चलते जाओ
और जो मिले पंथ में प्रेम उसे देते जाओ
द्वेष लिए मन में, लिए अथाह स्वार्थ
नाहक न जियो मनुज जीवन अपार्थ
पिया (सागर) मिलन को इकलौता लक्ष्य मान
चलते ही रहना जीवन में करते उत्थान
सन्देश यही देती हमे वहती है
शायद  नदियाँ  यही कहती है!

(निहार रंजन, सेंट्रल, ९ मार्च २०१३)

Friday, March 1, 2013

गर्भवती




गर्भवती 



सुबह अपनी प्रयोगशाला पहुँचा 
तो अपने नियत स्थान से "शिकागोवाली" गायब थी 
बस्ता रखा और  अपने घुलते रसायनों  को परखने लगा  
 अचानक "शिकागोवाली" चहकती लैब में दाखिल हुई
स्पैनिश में चहक चहक बतियाती रही 
और मैं अपने काम में निमग्न हो गया 

अचानक किसी ने पीठ  छुआ 
देखा "शिकागोवाली" गले में मास्क लटकाए खड़ी है 
मुस्कान बिखेरते पूछती है-बोलो मैं खुश क्यों हूँ ?
मैंने मज़ाक में कहा, तुम तो "मामासिता" हो 
किसी ने तुम्हारी खूबसूरती पर कविता लिखी होगी 
वो हंसती रही और बस हंसती रही
अचानक से मैंने पूछा
 सालों से रसायनों का ज़हर पीती  हो 
कभी पहले नहीं देखा मास्क लगाये हुए? 
जवाब आता है -अब मेरे अन्दर दो जानें हैं !

 "शिकागोवाली" सुबह से चहक चहक अपनी माँ से 
इस नए जान के बारे में कह रही थी
और उसकी माँ फूले नहीं समा रही थी
पहली  बार जो वो नानी बनने  वाली थी 
बोल रही थी मैं तो नानी बनने का सपना बिलकुल भूल चुकी थी 

पीएचडी की दीर्घता  से व्याकुल होकर 
और मातृत्व इच्छा से आकुल होकर 
"शिकागोवाली" ने कुंवारी माँ बनने का निश्चय किया था 
दिन भर लोग बधाइयां देने आते रहे 
किसी के मन ये सवाल नहीं था 
की बच्चा जायज है नाजायज 
किसी के मन में तिरस्कार नहीं था 
किसी ने नहीं कहा कि "शिकागोवाली" कुलटा है 
सब जानते थे "शिकागोवाली" बहुत नेक, मददगार इंसान है 
सब जानते थे "शिकागोवाली" कुंवारी माँ बन के भी 
वैसी ही नेक और मददगार रहेगी 

और एक तरफ अतीत को वो दृश्य भी याद करता हूँ 
जहां जानबूझकर, अज्ञानतावश या बलात 
जब कोई लड़की कुंवारी गर्भवती हो  जाती है 
तो  उसके नरक जाने की रसीद कट जाती  है 
उसके शील, चरित्र और परिवार की  धज्जियां उड़ती हैं 
बिना ये जाने कि उस कुंवारी लड़की के कोख में बच्चा आया कैसे 
फिर वो दोनों माँ  और बच्चा, आजन्म दाग लिए फिरते है 

बात सही और गलत की नहीं है 
बात है एक ही परिस्थिति को दो नजरिये से देखने की 
दो समाजों के अलग नजरिये की  
 एक तरफ स्वीकार्यता  है और दूसरी तरफ मौत का फरमान 
एक तरफ सब सामन्य है वहीँ दूसरी तरफ भूचाल 

कोठे के अन्दर  देह परोसती हर वेश्या  की कहानी एक नहीं होती 
उसमे भी इंसान होते हैं मेरी और आपकी तरह 
और ये भी सच नहीं की अपना पेट  काटकर जीनेवाला कंजूस  होता है
 शायद  वो अपने बीमार माँ की दवा के पैसे जोड़ता है 
 कुंवारी माँ कामान्धी  कुलटा नहीं होती
परिस्थिति जाने  बिना हम कितनी सहजता से लोगों को  वर्गीकृत करते हैं 

पर ये जानेगा कौन और क्यों ?
जहाँ नयी नवेली ब्याही मुनिया 
मातृत्व की भनक पाते ही 
बंद हो जाती है संकुचित होकर लाज के मारे 
अपनों से भी छुपी रहती है
क्योंकि वो गर्भवती हो गयी है.

(निहार रंजन , सेंट्रल, २८ फ़रवरी २०१३ )

*मामासिता (आकर्षक लड़की) 

Saturday, February 23, 2013

ज़िन्दगी के रंग

ज़िन्दगी के रंग 

गाँव के अन्दर, शहर के बीच और देश के बाहर 
कभी ठेस खाकर कभी प्यार पाकर 
ज़िन्दगी की राह पर चलते सँभलते 
कभी लड़खड़ाते , कभी ठीक चलते 
ज़िन्दगी ने जीवन के कई रंग देखने को दिए 
ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सीखने को दिए 

घूंघट गिरी थी, वो उठ गयी फिर हट गयी 
लीपा सिन्दूर हटा और फिर ज़ुल्फ़ हट गए 
माँ का दूध हटा , बोतलों ने जगह ली और फोर्मुले आये 
रिश्तों की परिभाषाएं बदली, फूल हावी हो गए ज़िन्दगी में 
अस्तपताल में दम खींचते बाप को एक गुच्छा फूल काफी था सुधि लेने को 
और मैं ठेठ गंवार!  हमने तो बस फूलों को तोडना जाना है 

ना  शादी की रस्में, न उनका प्रयोजन 
कोई जन्म ले  तो ले,  भगवान तो देख ही  लेंगे उसे 
और ज़िन्दगी की रफ़्तार ऐसी तेज़ 
कि ज़िन्दगी दौड़ते-दौड़ते बीच में ही गुम  हो गयी कहीं 
पैकेट  में खाना, एक हाथ में पेय और दूसरा  हाथ स्टीयरिंग पर 
१०० किलोमीटर की रफ़्तार में दौडती ज़िन्दगी 
और तभी कौंध जाता है यादों में  चाँदनी चौक  का वो चाटवाला 
शाहजहाँ रोड का वो तिवारी पान भण्डार 
और खान मार्किट में  बरिस्ता की कॉफ़ी 
परखनलियों में रसायनों का बदलता रंग 
यार दोस्तों का मजमा और बेफिक्री के दिन 
और उससे भी पीछे धान के वो हरे पीले खेत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत 

पर रफ़्तार की ज़िन्दगी ने ज़िम्मेदारी दी
रफ़्तार की ज़िन्दगी ने आत्मविश्वास दिया 
ज़िन्दगी को उन्मुक्त होकर बहते रहने 
प्यास हरते रहने की तालीम 
कोई ज़िन्दगी पूरी अच्छी नहीं,
कोई ज़िन्दगी बिलकुल बुरी नहीं  
ज़िन्दगी की प्यास तो कभी बुझती नहीं 
ज़िन्दगी अच्छा या बुरा बनाना तो अपने हाथ में है 
धीमे चलकर संतुलन बनाना आसान है 
पर रफ़्तार  में संतुलन बना के चलना एक सीख 

पर जो छूट गया बहुत पीछे वो है  मेरा गाँव
उसकी अलमस्त हवा, रेडियो पर बजता संगीत 
आटे के  मिल की हर शाम वो  पुक-पुक 
और शाम को लौटते बैलों का गले मिला कर चलना  
 स्कूल से लौटने के वक़्त गली के मुहाने पर खड़ी मेरी  माँ 
और हुरदंग मचाते लड़कपन के साथी 
लालटेन की रौशनी में  कीट-पतंगों के साथ ज्ञान अर्जन की जंग
कैलकुलस की  छान बीन में बावन पुस्तिकाओं के रंगे पन्ने 
और अपने पतंगों के लिए  हाथ से मांझा किये धागे 
जीते पूरे पांच सौ कंचे 

और अब वही गाँव की मिटटी, 
जिस का कण-कण मेरे रुधिर होकर बहता है, 
वापस लौट आने को कहती  है
और सेंट्रल साइंस लाइब्रेरी के बाहर का चायवाला
२/३ के लिए पूछता है बार बार 
पर कोसी नदी की घाट से दूर कूपर नदी की घाट बैठ 
मैं कविता लिखता जा रहा हूँ 
मैं कवि  बन गया हूँ!

(निहार रंजन, सेंट्रल, २३ फ़रवरी २०१३  )

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?



महान निर्देशक गुरु दत्त के फिल्मों का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ. उनकी मशहूर  फिल्म 'प्यासा' कई बार देखी है.  फिल्म के  आखिरी दृश्य में वो कोठे पर पहुँच वहीदा रहमान को बुलाते हैं और "साथ चलोगी?" प्रश्न के साथ   फिल्म का समापन हो जाता है.  यह  कविता उसी  फिल्म प्यासा के आखिरी दृश्यों प्रेरित है और इस महान कलाकार को समर्पित है.

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?

उबड़-खाबड़ कंकड़ पत्थर, यही मार्ग का परिचय है
ना पेड़ों की छाया ना पनघट चलो अगर दृढ निश्चय है   

हम नहीं ख्वाब दिखाने वाले इन्द्रलोकी काशानों के
अपनी बगिया में नहीं मिलती खुशबू जूही बागानों के

ना रोशन हैं राहें अपनी, पल पल ही टकराना होगा
गिरते उठते गिरते उठते इस पथ पर तुम्हे जाना होगा   

भूखे प्यासे दिन गुजरेंगे,  भूखी प्यासी रातें होंगी  
तेज हवाएं भीषण गर्जन साथ लिए बरसातें होंगी

जीवन ताप परीक्षा होगी, होगी असलियत की पहचान
निखर कर बाहर निकलोगी गर हो तुम स्वर्ण समान  

अपने हिस्से में कुछ दागदार फूल है, कर दूं अर्पण?
पर अन्दर अथाह प्रेम है, खोलो पट देखो मेरा मन   

इस अनिश्चय के डगर में, चलोगी पकड़ तुम हाथ मेरे ?
आज कह दो तुम प्रिये गर चल सकोगी साथ मेरे

निहार रंजन, सेंट्रल, २-२३-२०१३ 



Sunday, February 17, 2013

कवि का सच

कवि का सच 


लोग कहते हैं 
कविता झूठी है 
कल्पना का सागर है 
जिसका यथार्थ से कुछ वास्ता नहीं

लोग कहते हैं  
कवि कविता की आड़ में अपना भड़ास निकालते हैं
अपनी  ज़िन्दगीके अँधेरे को छदम रूप देकर कविता का नाम देते है 
अपनी असहायता को  झूठे शब्द देकर हुंकार का नाम देते हैं

लोग कहते हैं 
कविता ने  झूठी आस दी है 
उजालों  के स्वप्न दिए है     
दिल को खुश रहने का ख़याल दिया है, पर हकीकत?

लोग कहते हैं 
कवि रसिया है 
कविता के कंधे पर धनुष रख आखेट करता है 
अपनी अतृप्त इच्छाओं को दुनिया के दर्द कहता है 

लोग कहते हैं 
कविता बिन दर्द हो ही नहीं सकती , 
रामायण देखो, "ग़ालिब" का दीवान देखो 
"मजाज़" के टूटे अरमान देखो 

लोग कहते हैं 
कविता में शराब की बातें है 
कविता में चाटुकारिता है 
कविता हारे हुए (bunch of losers) पढ़ते है 


लोग कहते हैं 
कविता बेकार है 
दुनिया में सब कुछ अच्छा है 
बस नजरिये में फर्क की ज़रुरत है 

लेकिन काश!!

कविता सब समझ पाते 
सब यह समझ पाते कि
कवि ह्रदय का विस्तार निस्सीम है 
इसलिए उसमे अपरिमित  दर्द है 

सब यह भी समझ पाते  
जब दिल्ली में असुर नाचते है 
तो कवि ह्रदय नुकीले जूतों  से रौंदा जाता है 
और दर्द की वेदना वैसी ही होती है जैसे किसी स्व का हादसा हो 

हाँ दुनिया अच्छी है 
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में उजाले है 
आराम है, पैसे है और दुनिया बदलने का झूठा दंभ है 
अब किसी को रोटी नहीं मिलती तो मेरी नींद क्यों जाए 

लेकिन अपनी ज़िन्दगी के उजालों से हट के देखता है कौन 
रंगीनियों की क्षणिकता और श्वेत श्याम के स्थायित्व को देखता है कौन 
न्यूयॉर्क की गलियों में वक्षोभ से औरत की कीमत होते देख दुखता है कौन 
वही कोई "शराबी", "पागल", "हारा हुआ" कवि  

कौन कहता है  दुनिया में दर्द नहीं है 
लेकिन दर्द को देखने की लिए आँखें चाहिए
उनमे ख़ास ज्योति चाहिए 
एक ख़ास जिगर चाहिए 

और वो रौशनी तभी आती है 
जब सब अपने स्वजनों की माया पृथक कर 
अपने प्रियतम के आलिंगन से विमुक्त हो 
उस असहाय को भी देखें जिसका आंत जल रहा है 

वैसी ज़िन्दगी भी देखे 
जिसे समय का चक्र एक पल में लूट लेता है 
और एक पल में चहचहाती ज़िन्दगी में वीराना आ जाता है 
सालों की समेटी ख़ुशी एक पल में काफूर होती है 

लेकिन इसके लिए चाहिए मन, ह्रदय का विस्तार 
दृगों को वही ख़ास ज्योति 
और अपने स्वार्थ से इतर एक दुनिया का एहसास 
जहां घोर अँधेरा पसरा है 

और मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि 
ना मुझे मुहब्बत ने ह्रदय चाक किया है 
ना मेरी दुनिया में अँधेरे हैं 
और ना ही शराब का मैं गुलाम हूँ 

फिर भी दिल में  दर्द है 
क्योंकि दर्द जीवन का सच है, स्थायी या अल्पकालिक 
क्योकि "दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त"
क्योंकि ह्रदय कवि का है, आहनी नहीं 

(निहार रंजन, सेंट्रल, १७-२-२०१३ )










रात की बात



रात की बात

जब आसमाँ  से गुम हो निशाँ आफताब के
हो माह में डूबा ज़माना, रात को आना

पाओगी सितारों की झलक, जुगनू भी मिलेंगे
उस पर यह मौसम सुहाना, रात को आना

जो सादादिली तुझमे, शोखी है, अदा है
हो जाए न ये जग दीवाना, रात को आना

सौ लोग है हाजिर लिए खंज़र वो अपने हाथ
उनसे जरा खुद को बचाना, रात को आना

कुछ हर्फ़ हैं जो अब तलक उतरे ना हलक से
आज गाऊँगा दिलकश तराना, रात को आना  

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१०-२०१२ )

Aftaab  = Sun
Maah   = Moon
Shokhi  = Playfulness
Harf    = Words
Halaq   = Throat



Saturday, February 2, 2013

जवाब पत्थर का

पत्थर से गुफ्तगू
पत्थर से मैंने सबब पूछा
क्यों इतने कठोर हो
निष्ठुर हो, निर्दय हो  
खलनायकी के पर्याय हो

कभी किसी के पाँव लगते हो तो ज़ख्म
कभी किसी के सर लगते हो तो ज़ख्म
और उससे भी दिल न भरे तो अंग-भंग
क्या मज़ा है उसमे कुछ बताओ तो?

तुम दूर रहते हो तो सवाल रहते हो
पास तुम्हारे आता हूँ तो मूक रहते हो
तुम्हारे बीच आता हूँ तो पीस डालते हो
तुझपे वार करता हूँ तो चिंगारियाँ देते हो  

आज मेरी चंपा भी कह उठी मुझसे “संग-दिल”
अपनी बदनामी से कभी नफरत नहीं हुई तुम्हे?
काश! लोग तुम्हें माशूका की प्यारी उपमाओं में लाते
उनके घनेरी काकुलों के फुदनों में तुम्हें बाँध देते

उनके आरिज़ों की दहक के मानिंद न होते गुलाब
पत्थर खिल उठते जब खिल उठते उनके शबाब
मिसाल-ऐ-ज़माल भी देते लोग तो तेरे ही नाम से
हो जाता दिल भी शादमाँ तेरे ही नाम से

ये सब सुनकर पत्थर का मौन गया टूट
और मुझे जवाब मिला-
"ताप और दाब से बनी है मेरी ज़िन्दगी
मैं कैसे फूल बरसा दूँ प्यारे!"

निहार रंजन, सेंट्रल, (२-२-२०१३)

सबब = कारण 
संग = पत्थर
काकुल= लम्बे बाल
आरिज़ = गाल
ज़माल = रौशनी
शादमाँ = प्रसन्न, आह्लादित


Saturday, January 26, 2013

क़द्र रौशनी की

क़द्र रौशनी की 

जिन आँखों ने देखे थे सपने चाँद सितारों के
वो जल-जल कर आज अग्नि की धार बने हैं

सपने हों या तारें हों, अक्सर टूटा ही करते हैं
हो क्यों विस्मित जो टूट आज वो अंगार बने हैं

अंगारों का काम है जलना, जला देना, पर आशाएं    
जो दीप जलें उनके तो रौशन मन संसार बने हैं

संसार का नियम यही कुछ निश्चित नहीं जग में
किस जीवन की बगिया में अब तक बहार बने हैं  

वो बहार कैसी बहार, बहती जिसमे आँधी गिरते ओले
उस नग्न बाग़ का है क्या यश, जो बस खार बने हैं

ये खार ही है सच जीवन का, बंधुवर मान लो तुम
जो चला हँसते इसपर जीवन में, उसकी ही रफ़्तार बने है

रफ़्तार में रहो रत लेकिन, तुम यह मत भूलो मन
क़द्र रौशनी की हो सबको, इसीलिए अन्धकार बने हैं 

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२६-२०१३)

Sunday, January 20, 2013

पंथ निहारे रखना

पंथ निहारे रखना

छोड़ दो ताने बाने
भूल के राग पुराने
प्रेम सुधा की सरिता
आ जाओ बरसाने

प्रियतम दूर कहाँ हो
किस वन, प्रांतर में  
सौ प्रश्न उमड़ रहे हैं
उद्वेलित मेरे अंतर में

जीवन एक नदी है
जिसमे भँवर हैं आते
जो खुद में समाकर
दूर हमें कर जाते

ये सच है जीवन का  
लघु मिलन दीर्घ विहर है
फिर भी है मन आह्लादित
जब तक गूँजे तेरे स्वर हैं

देखा था जो सपना
वो सपना जीवित है
प्रीत के शीकर पीकर
प्रेम से मन प्लावित है
___________________
....प्रिय पंथ बुहारे रखना
हो देर मगर आऊँगा
वादा जो किया था मैंने  
वो मैं जरूर निभाऊंगा.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३)


काली बातें


काली बातें

रात है निस्तब्ध
और मैं अकेला चला जा रहा हूँ
ना कोई मंजिल है और न वजह
बस चलना है इसलिए चलता हूँ

रात गहरी है, हैं घने घन
और उनका डरावना स्तनन
लेकिन  मुझे चलना है...
भला मिटटी से दूर कहाँ तक, कब तक
एक जननी है, तेरा भी, मेरा भी
कब तक इससे दूर भागोगे
इसलिए चलता ही जाता हूँ
क्योंकि आज रात बहुत कारी है
आज रात बहुत प्यारी है

कारा मम अति प्यारा ..
कारे मेघ हो या तेरी आँखें
डरता नहीं देख मौत का कारा-स्वप्न
पर डर जाता हूँ उस काले लकीर  से
जो तुम्हारे नैन छोड़ जाते है, कमबख्त!!
सारे काजल ले जाते है वो स्याह अश्रु  
पर तुम कहती हो कि अश्रु निकले तो अच्छा है
खुल के कह दो ना आज.. मेरा विप्रलंभ है

मुझे पता है तुम्हारा गला रुंध जाएगा
क्योंकि आजतक तुमने दोष ही लिया
तुम न कह पाओगी मुझसे दिल का हाल
तुम ना कह पाओगी मुझसे, “मैं निरा-व्याल”
और वही चुप्पी जोर से बोलती है मेरे मन
साल दर साल, दर-ब-दर, दिवस-निशि-शर्वर
और मैं चलता जाता हूँ “स्फीत” उर, स्पन्न मान लिए
स्याह रातों से तेरी आँखों का काजल माँगने
वात्या से अविचलित, मेघ के हुंकार से निडर
उस चुप्पी भरी आखिरी मुलाकात के शब्द तलाशता
जिसमे मैंने देखे थे अश्रुपूर्ण विस्फारित तेरे नयन.
कारे नयन!! जिसका  काजल इसी मिटटी ने चुरा रखा है .
चलो मिटटी से मांग लूँगा ........!!

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३ )


Saturday, January 12, 2013

ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी

ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी


तेरी चीख नहीं सुनी हमने
पर घोर शोर है मन में
धधक उठी आज आग
हमारे हिस्से के हर कण में  

हो तुम मौजूद नहीं पर
तेरी ख़ामोशी कहती है सबसे
मचेगा प्रलय भारतभूमि पर
अगर जगो ना तुम अबसे    

आ गया वक़्त है जब
हम खुद से करें तदबीर  
और बदलें सबसे पहले
अपने समाज की तस्वीर

खोल दे बेड़ियाँ बेटियों के पैर से,
दें हम उसके हाथ कलम
लिखने दे उसे खुद की तकदीर,
मिटाने दे उसे खुद के अलम   

हम ना दें अब और उसके
गमज़ा-ओ-हुस्न की मिसाल
तंज़ न दें उसको बदलने को,
हम ही बदलें अपनी चाल

हमने माना की सारे बुजुर्ग
होंगे नहीं हमारे हमकदम  
नदामत है हमारे ज़माने की,
करें अज़्म लड़ेंगे खुद हम

वो जो हर अपना घर में
मांगेगा दहेज़ गहने जेवर
अहद लो आज खुद उठके
तुम दिखाओगे चंगेजी-तेवर  

ये शपथ लो ब्याह ना आये
कभी बेटी की शिक्षा की राह
उसको रुतबा-ओहदा पाने दो
जिसकी उसको मन में है चाह

दामिनी!

तुम जा चुकी हो उस मिटटी में
जहां हम भी एक रोज़ आयेंगे
काश! जो तुम न देख सकी
उस समाज की दास्ताँ सुनायेंगे

ये मत समझना तुम
व्यर्थ हुए तुम्हारे प्राण
तन्द्रासक्त भारतभूमि पर
जागेंगे जन एक नवविहान

खोल दी सबकी आँखें,
झकझोड़  दिया अन्तर भी
ज्योति थी तुम जीते जी,
ज्योत हो तुम मर कर भी

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१२-२०१२)

Friday, January 4, 2013

जल! तेरी यही नियति है मन


जल! तेरी यही नियति है मन

जीवन पथ कुछ ऐसा ही है
चुभते ही रहेंगे नित्य शूल
हो सत्मार्गी पथिक तो भी
उठ ही जाते हैं स्वर-प्रतिकूल
छोड़ो  उन औरो की बातें
भर्त्सना करेंगे तेरे ही “स्वजन”
जल! तेरी यही नियति है मन

एक मृगतृष्णा है स्वर्णिम-कल
होंगे यही रवि-शशि-वायु-अनल
होंगे वही सब इस मही पर
शार्दूल, हंस,  हिरणी चंचल
हम तुम न रहेंगे ये सच है
कई होंगे जरूर यहाँ रावण  
जल! तेरी यही नियति है मन

हो श्वेत, श्याम, या भूरा
है पशु-प्रवृत्ति सबमे लक्षित
ब्रम्हांड नियम है भक्षण का 
तारों को तारे करते भक्षित
है क्लेश बहुत इस दुनिया में 
हासिल होगा बस सूनापन
जल! तेरी यही नियति है मन

त्रिज्या छोटी है प्रेम की
उसकी सीमा बस अपने तक
ऐसे में शान्ति की अभिलाषा
सीमित ही रहेगी सपने तक
मेरा हो सुधा, तेरा हो गरल
फिर किसे दिखे अश्रुमय आनन
जल! तेरी यही नियति है मन

है प्रेम सत्य, है प्रेम सतत
पर प्रेम खटकता सबके नयन
आलोकित ना हो प्रेम-पंथ
करते रहते उद्यम दुर्जन
आनंद-जलधि है प्रेमी मन
यह  नहीं जानता  “दुर्योधन”
जल! तेरी यही नियति है मन

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१-२०१३)

Sunday, December 30, 2012

बगावत अपने घर


बगावत

अमानत भेंट हुई है आज उस पाशविकता के
जो आई है समाज के कण-कण में पसरे दानवता से

और जब से वह अर्ध्स्फुट पुष्प गई है  लोक-पर
ऐसा लगता है मेरा ही कोई हिस्सा गया है मर

एक हाहाकार मचा है अपने अंतर में
कोई तेज नहीं है अब अपने स्वर में

सोचता हूँ कौन थामेगा उसके स्वजनों की बाँह 
क्या हम दे ही सकते उन्हें सिवाय कुछ सर्द आह

कायर हम क्योंकि जब हमारे अपने ही सीटी बजाते है
कितनों को हम जोर से तमाचा मार पाते हैं.

इसलिए बार-बार “राम” नाम के रावण अवतरित हो पाते हैं  
और हम बस इंडिया गेट और गेटवे ऑफ़ इंडिया पर मोमबत्ती जलाते हैं

कितने हम है जो अपनी शादी में दहेज़ को ठुकराते हैं
कितने है जो अपने घर में कुरीतियों से टकराते है
                                                              
कितने है हम  जो पूछ पाते हैं अपने आप  से
मेरी बहन भी क्यों न पढ़ पायी, ये पूछते है बाप से

क्यों न होता है ये आवेग और ये क्लेश
जब १६ साल की कोई पड़ोसी  धरती है दुल्हन का वेश

क्यों नहीं उठती है वही प्रखर ज्वाला, होता ह्रदय विह्वल
जब घर की चाहरदीवारियों में बेटी को लगाया जाता है साँकल

शिक्षा से कौशल ना देकर, हम देते उसे चूल्हे का ज्ञान
और बेड़ियों में बंद कर  हम करते अबला का सम्मान  

यही वजह है की राम नाम का “रावण” जन्म से जानता है
दामिनी हो या मुन्नी, उसे बेड़ियों में असहाय ही मानता है

ये भी जानता है, समाज के पास नहीं है “ढाई किलो का हाथ”
समाज के पास है बस मोमबत्ती, सजल-नयन, और बड़ी बड़ी बात

अमा दिवस में, अमा निशा में, अमा ह्रदय में, अमा हर कण में
आँसू झूठे, आहें झूठी, ये कविता झूठी, है झूठ भरा हर उस प्रण में

जब तक हम युवा, लेकर दृढ निश्चय खा ले आज सौगंध
सबसे पहले अपने घर में हम बदलेंगे कुरीतियों के ढंग

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२-३०-२०१२ )