प्यार ही हैं दोनों
एक प्यार जिसमे
दो आँखें मिलती हैं
दो दिल मिलते हैं, धड़कते
हैं
नींद भी लुटती है और चैन भी
जीने मरने की कसमें होती
हैं
और प्यार का यह दूसरा रूप
जिसमे न दिल है, ना जान है
ना वासना है, ना लोभ
ना चुपके से मिलने की चाह
ना वादे, ना धडकते दिल
क्योंकि इस प्यार का केंद्र
दिल में नहीं है
क्योंकि इस प्यार का उद्भव
आँखें मिलाने से नहीं होता
इस प्यार का विस्तार
द्विपक्षी संवाद से नहीं
होता
ये प्यार एकपक्षीय है
बिलकुल जूनून की तरह
एक सजीव का निर्जीव से
प्यार
एक दृश्य का अदृश्य से
प्यार
जिसकी खबरें ना मुंडेर पर कौवा
लाता है
ना ही बागों में कोयल की
गूँज
बस एक धुन सी रहती है सदैव
जैसे एक चित्रकार को अपनी
कृति में
रंग भरने का, जीवन भरने का
जूनून
ये भी एक प्रेम है, अपनी
भक्ति से
अपनी कला से, अपनी कूची से, अपने भाव से
जैसे मीरा को अप्राप्य श्याम
के लिए
नींद गवाने की, खेलने,
छेड़ने की चाह
यह प्यार बहुत अनूठा होता
है
क्योंकि इसमें इंसानी प्यार
की तरह
ना लोभ है , ना स्वार्थ
ना दंभ है, ना हठ
सच्चे प्यार की अजब दास्ताँ
होती है
वो प्यार जिसका केंद्रबिंदु
दिल नहीं
इंसान की आत्मा होती है
क्योंकि सच्चे प्यार को
चाहिए
स्वार्थहीन, सीमाओं से रहित आकाश
एक स्वछन्द एहसास
और वो बसता है आत्मा में
क्योंकि आत्मा उन्मुक्त है
कुछ पता नहीं चलता कब, कैसे
सच्चा प्यार हो जाए
किसी ख़याल से, किसी परछाई
से
किसी रंग से, किसी हवा से
किसी पत्थर से, किसी मूरत
से
किसी लक्ष्य से, किसी ज्ञान
से
घंटे की ध्वनि से, उसकी
आवृति से
किसी बिछड़े प्रियतम की
आकृति से
(निहार रंजन, सेंट्रल,
१५-१२-२०१२)