Saturday, January 31, 2015
सहर, और कितनी दूर?
›
भीतकारी निशा है यह किसके मन को भाती रे, साथी रे सहर, और कितनी दूर? इस दीये का क्या करें नूर जो ना लाती रे, साथी रे सहर, और कित...
19 comments:
Saturday, January 10, 2015
दो! आखिरी है आज की
›
कि साकी! अब जियादा जोर ना हो और पियालों का भी कोई शोर ना हो रख रहे हैं लाज तेरे हाथ की दो! आखिरी है आज की कि साकी! पी भी ले...
22 comments:
Monday, January 5, 2015
स्टॉकिंग As: भूत का भूत
›
कब्र पर घास, घास या दूब दूब पड़ पड़ा-पड़ा ओस गया उब उब गए थे जॉन ‘पा’ कि चल रहा है क्या समय से पूर्व मैं धरा में क्यों गया धरा शा...
9 comments:
Monday, December 15, 2014
दस साल बाद
›
दस साल बाद श्वेत, पीत और रक्त-वर्णी कुसुमों से इतर ढूंढता हूँ एक ‘’नील-कुसुम’’ तत्पर, सद्क्षण, गमसुम-गुमसुम चंद्रमुखी! खोयी है आक...
22 comments:
Wednesday, November 19, 2014
शीत के दिन आ गए हैं
›
शीत के दिन आ गए हैं घन गगन पर छा गए है पत्ते भी मुरझा गए हैं और प्रगल्भा पूछती है कब मिलोगे कब तलक कविता-मधुर से तुम छलोगे फिर व...
14 comments:
Friday, November 14, 2014
अस्तित्व बोध
›
कुछ अधूरे शब्द कुछ अधूरी ग़ज़लें कुछ अधूरी कवितायें यह अधूरा होश शब्द, स्वप्न, साँसों में उलझा मन और मन का यह अधूरापन जो मेरी ता...
11 comments:
Thursday, October 30, 2014
विचिंतन
›
कब तक मिथ्या के आवरण में रौशनी भ्रम देती रहेगी कब तक भ्रामक रंगों में बहकर उम्मीद अपनी नैया खेती रहेगी ? आप पन्नों में लिपटे इति...
13 comments:
Sunday, September 21, 2014
अणुमा-बोध
›
इस अंतहीन विस्तार में मैं देखता हूँ चालाक, चतुर आँखें सुनता हूँ, वासना की लपलपाती जीभ पर दौड़ते वीर्यधारी महापुरुषों का उद्घोष घोर ...
15 comments:
‹
›
Home
View web version