Monday, July 27, 2015

एक रुदाद

सर कलम करके वो आये हाथ अपने धो लिए
था लिखा रोना हमारे भाग में हम रो लिए

कह रहे थे सबसे वो करते हुए ज़िक्र-ए-रहम
तुम मनाओ खैर लेना चार था हम दो लिए

साक्ष्य भी था रक्त भी, सिसकी, किलोलें, सब के सब
जांच में पर थी सियासत सब के सब ही खो लिए

है शिकायत हाथ में जायें मगर हम किसके पास
वक्त का एक बोझ है कहकर अभी हम ढो लिए

पट्टी जिनके आँख पर हाथों तराजू जिनके है
मुख खुलेगा उनका जब तक कितने रुखसत हो लिए

हम गरीबों की सदायें शायद जगेंगी एक दिन
सोचते ही सोचते लो आज भी हम सो लिए

(ओंकारनाथ मिश्र, हरिद्वार, २० जुलाई २०१५)

Tuesday, July 7, 2015

दो बूदों के बाद


मानसूनी खेतों की हरीतिमा देखकर
जब मेरा मन पुलकित होकर झूम उठता है
तो मैं सोचता हूँकि हमारे किसानों का मन कितना झूमता होगा

वो किसान; जिनके लिए इसी हरियाली में सारी खुशहाली है
जिनके लिए इसी हरियाली में सारा स्वप्न है
जिनके लिए इसी हरियाली में बेटी की शादी है
जिनके लिए इसी हरियाली में बेटे की चिंता है
जिनके लिए इसी  हरियाली में जोरू के मुस्कान का जरिया है
जिनके लिए इसी हरियाली में भूत को विस्मृत कर भविष्य का रास्ता है
और इतनी कठिन मिहनत के बाद दो पल सुस्ताने की मोहलत है
उनके कर-नमन के लिए हमारे लिए दो पल है?

जो चटोरे; साँवरिया चिकन, चलुपा, पैड थाई और बिरयानी के दीवाने हैं
वो शायद ही सोचते हैं कितना पसीना बहाते हैं मिटटी के दीवाने
तो मिलता है हमें अनाज और उदर को शान्ति
मुझे ऐसे दीवानों से
जो मिट्टी के लिए जीते हैं, मिट्टी में जीते है
और अपनी मिट्टी के लिए ही मरते हैं;
बहुत प्रेम है
प्रेम हैबहुत-बहुत


(ओंकारनाथ मिश्र, कानपुर, ४ जुलाई २०१५)