Monday, June 29, 2015

एक साँप के प्रति

बात बस इतनी सी थी
कि उसने अपनी टाँगे मेरे टाँगों पर रख दी थी
और सोचा था
कि जैसे नदी ने अपने में आकाश भर रखा है
जैसे एक ऑक्टोपस ने एक मछली का सर्वांग दबा रखा है
वैसे एक सांप और सेब के गिरफ्त में सारी पृथ्वी है

मैंने कई बार चाहा है कि मुझे एक पवित्र सांप मिले
एक पवित्र सांपजो चुपके से आये और कुछ पावन कर जाए
पावन, अति-पावन
लेकिन सदियों से
मुझे, या भाई अमीरचंद फोतेदार
या व्रुनी, या डग विलियम्सन, या शैनन डिमेनिया
को वो सांप नहीं मिलता है
(अब राजा जनमेजय नहीं है तो कोई करता है नाग-यज्ञ?)
मिलता है
एक तक्षक सांप  
मिलता है मुझे रिश्वत
मिलता है मुझे विष
(कहाँ गए नील कंठ?)
और एक काला सांप
काला सांप और
सेब
जिसे मैं मजे से खता हूँ
सेब खाते ही सारा फ्रक्टोज और सुक्रोज घुलकर
मुझे नींद की आगोश  में ले लेता है
और साँप बैठा रह जाता है 

मैं अक्सर सोचता हूँ कि
मुनि आस्तिक इतने दयालु नहीं होते कि
मुझे या मेगन कैम्पबेल को
यूरोप, अफ्रीका या ऑस्ट्रेलिया के लोगों को
या जंगल में चल रहे पथिकों को सांप का भय नहीं होता
लेकिन जानता हूँ कि
सांप और सृष्टि की इस कथा में
ना सांप से पृथक यह सृष्टि है
ना सृष्टि से पृथक कोई सांप है

(ओंकारनाथ मिश्र, गोपाचल पर्वत, २६ जून २०१५)