Saturday, January 31, 2015

सहर, और कितनी दूर?

भीतकारी निशा है यह
किसके मन को भाती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?

इस दीये का क्या करें
नूर जो ना लाती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?

अब इसे न तेल दो
जल चुकी है बाती रे, साथी रे
सहर और कितनी दूर?

उठो, तमिस्रा से कह दो
वज्र सी है छाती रे, साथी रे
सहर और कितनी दूर ?

स्वप्न है लघु, वृहत जीवन
देख क्या दिखाती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?

तुम बुझो ना रात रहते
है कोई मुस्काती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?

रात्रि में है बंसरी सी
दूर कोई गाती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?

कीर्ण किरणें, तेज आभा
देख कब है आती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?

नहीं अभिध्या, नीति-भीति  
है हमें ललचाती रे, साथी रे
सहर, और कितनी दूर?


(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड स्ट्रीट, २६ जनवरी २०१५)

Saturday, January 10, 2015

दो! आखिरी है आज की

कि साकी! अब जियादा जोर ना हो
और पियालों का भी कोई शोर ना हो   
रख रहे हैं लाज तेरे हाथ की
दो! आखिरी है आज की

कि साकी! पी भी लेते
कह जो देती, यह निशा जो, किस दिशा को
जा रहा है ये पताकी, ये बता कि
बिंदु दो हैं, फिर भी भ्रामक जाल कैसा, चाल जिसमें
है सुलझती, और उलझती
नियत मिलता शूल, पाते कूल, ओ! चलना पड़ेगा   
रुकने से या झुकने से, होती ना कमतर
लपटें आतुर आग की, दुःख-राग की सुनता कोई कब
हाय यह अभिशाप कैसा, जन्म लेना पाप कैसा (ओ माय गॉड!)
कष्ट दुःसह, उठता रह-रह,
दंतुरित मुस्कान की और प्राण की,
ज्योति जलेगी कब तलक, जाएगा किस दिन यह छलक
ओ साकी! है शपथ इस राज की
दो! आखिरी है आज की

 कि साकी! जी भी लेते
साथ में, गर जानते वो राह जिसकी चाह लेकर
हम चले थे, जाने कितनी छातियों पर क्या दले थे
कहते सबसे, दीप यह जलता हुआ रह जाएगा, सह जाएगा
मरु का बवंडर, और खंडहर से ह्रदय का
एक कोना, एक बिछौना
एक तकिया, एक चादर जिसपे मैंने
दीप रखकर, सबसे कहकर, चल पड़ा उन्मुक्त मैं
यह ढूँढने कि यामिनी में दामिनी सी जो चमकती
निस्तिमिर करती जगत मम, सित-असित का भेद भी कम
वो सितारा उस गगन में, और मगन मैं  
फिर भी चलता हूँ बंधे उस अक्ष से, ओ प्रक्ष!
यह जान लो रखना नहीं, हमें नींव अगले ताज़ की
दो! आखिरी है आज की

कि साकी! सी भी लेते
होंठ अपनी, बदल देते चाल अपनी, ढाल अपनी
खो भी जाते कामिनी के अलक में और पलक में
और भाष्य भी कहते प्रियंकर, रहते तत्पर
मिथ्या के संसार में, सब वार कर, सब पार कर
देते दिलासा, क्षणिक है यह नीर-निधि सा पीर, क्यों हो प्यासा?
लो करो रसपान तुम, मधु के नगर में, लो अधर पर
स्वाद वह, जिस स्वाद को प्यासी है दुनिया, भागती पागल सी
अनजान इससे, सुख नहीं है, छोड़ उस बांह को, जिस छाँह में
एक अंकुर, एक बिरवा से बढ़ा था, शाख धरने, पात धरने
स्थैर्य का प्रतिमान बनने, किसी दृग की शान बनने
कैसी उपधा, इस द्विधा की क्या कहें, क्या-क्या सहे
इस तार ने, अब क्या सुनाएं साज़ की
दो! आखिरी है आज की

कि साकी! अब जियादा जोर ना हो
और पियालों का भी कोई शोर ना हो   
रख रहे हैं लाज तेरे हाथ की
दो! आखिरी है आज की


(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड स्ट्रीट, १० जनवरी २०१५)

Monday, January 5, 2015

स्टॉकिंग As: भूत का भूत

कब्र पर घास, घास या दूब
दूब पड़ पड़ा-पड़ा ओस गया उब  
उब गए थे जॉन ‘पा’ कि चल रहा है क्या
समय से पूर्व मैं धरा में क्यों गया धरा
शांत थी हवा मगर वहां नहीं थी शान्ति
सत्य एक ओर था और एक ओर भ्रांति
तारा एक टूट गया, टूटे कई तार
विश्वास पर जो चल गया कटार


(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड स्ट्रीट, ५ जनवरी २०१५)