विहान की पहली भास से
दिवस के अवकाश तक
पल-पल में सब, है जाता बदल
परिवर्तन रहा अपनी चाल चल
चढती, बढती, ढलती धूप
रात्रि का भीतिकर स्वरुप
लौटे विहग अपने नीड़ों में
जो गए थे प्रात निकल
परिवर्तन रहा अपनी चाल चल
पोटली लिए किसान
चले हैं देख आसमान
हो अन्नवर्षा या अकाल
इस मौसम से उस मौसम
दाने से पौध, पौध से फसल
लिए ह्रदय में अकूत बल
कहाँ रुका है उनका हल
बालपन से तरुणाई
तरुणाई से हरित यौवन
ढीली होती त्वचा, घटती शक्ति
बढती हुई ईश्वर भक्ति
चार कंधो पर सेज, निर्याण
वही आत्मा, नयी जान
हाय रे जीवन का खेल
नित वही ठेल, रेलमपेल
मौसम का हर महीने बदलता
तेवर
हर शाम झींगुरों का बदलता
स्वर
पर्वत शिखरों पर हिमपात
वहीँ अभ्युदित होता
जल-प्रपात
नदी बहकती चली, हेतु सागर मिलन
भाप बन पानी का यूँ सतत
रूप-गमन
जी हाँ! परिवर्तन ही
परिवर्तन
(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, ११
अगस्त २०१३)