Tuesday, July 29, 2014

परी कथा की परिकथाएं

प्रेमिका अनवरत मिलन-गीत गाती है
और ये कदम हैं जो लौट नहीं पाते
भेड़ियों के बारे कहा गया था वो आदिम शाकाहारी हैं
गाँव में शहर के कुछ लोग ऐसी ही घोषणाएं करते हैं
यही सब सुनकर मैं पलायन कर गया
गाँव के चौक तक आकर माँ ने आवाज़ दी थी
लेकिन बेटे के क्षुधा-क्रंदन ने मुझे विक्षिप्त कर दिया था  

कांगड़ा में पत्थर-काटने वाली मशीन के साथ
चिंतित मन की सारी चीखें दब जाती थी
सोचा था पत्थर-भाग्य भी खंडित होगा इसी से एक दिन
मालिक की शान के लिए विरह और विष को
पालमपुर की मीठी बूटियों के साथ पीता  था
भाखड़ा-नंगल से पहले वमन की आज्ञा नहीं थी
ठंडे माहौल में जल्द ही मेरा उबलता खून ठंडा हो गया था
स्वाभिमान, राष्ट्रवाद और शौर्य
एक चीख से, एक साथ स्खलित हो गए
पत्थर तोड़नेवाली मशीन के नीचे एक मशीन थी
जिसकी साँसे थी   

आजादपुर की मंडी में पोटली बांधे मैं अकेला नहीं था
बहुत लोग थे मेरी तरह विकल, विक्षिप्त, विच्युत
जिनकी इच्छाओं को नाग ने डस लिया था 
जिनके पिताओं को चित कर
ठेल दिया गया था सकल शार्वरता में
आम के बगीचे बाँझ हो गए थे
प्रेमिका गीत गा रही थी
मुझ निरपवर्त के लिए   

मेरी प्रेमिका (जो अब मेरी पत्नी है)
अपने ह्रदय तुमुल की शान्ति के लिए
मेरे साथ पत्थर तोड़ना चाहती है
लेकिन मैंने बार-बार कहा है उससे,
निराला मर गया है
बार बार कहा है आज,
शिखंडी भी चीरहरण जानता है   
बार बार कहा है कि,
पेट और तय रतिबंध की सुरक्षा के बाद
आदमी अक्सर लंच बॉक्स लेकर शिथिल हो जाता है
बन जाता है
सुबह और शाम के बीच झूलता एक चिंतापर, चर्चर पेंडुलम
घटा-टोप आकाश के नीचे
अपने नौनिहाल की आँखों में ज्योति ढूंढता है
क्योंकि चिरंतन चक्र की उसे आदत है
और बताया अपने दोस्त की बात
जिसने कहा था कि भारत और अमरीका के युवाओं में
फर्क यही है कि
कि हमारे सपने तीस बरस की उम्र आते-आते टीस बन जाते है
लेकिन प्रेमिका मिलन-गीत गा रही थी
हाँ! उसके गीत के किरदारों में नए नाम थे
शिखिध्वज और शतमन्यु के   

मेरे पिता ने   
आंखे मूँद कर कहा था, ये दूंद
साल १९४७ से जारी है जब
किसी ने गुलाब की पंखुड़ियाँ चबा, कुल्ला  
सुनहरे कलम से लिखी सपनों की सूची पर फेंक दिया था
गोरियों की लोरियों में सुनी परी कथा की परिकथाएं
और एक पर-स्त्रीभोगी से ब्रह्मचर्य का पाठ लिखवाकर
हमारे पाठ्यक्रम में डाल दिया था
कहते हैं, उस दिन से आजतक
किरीबुरू की झंपा मुर्मू को
उसकी बेटियों और उसकी बेटियों को
प्रकृति ने जब भी अपने धर्म से भीषण सरदर्द दिया है
वह अपने मालिक के पास
बस एक ‘सरबायना स्ट्रांग’ माँगने चली आती है
इतने सालों में एक आना सूद
सात रूपये सैकड़ा हो गया है
अनपढ़ होकर भी सूद की दर बहुत अच्छे से जानती है
सौ पर चौरासी रूपये साल के  
और यह भी जानती है कि हमारे देश में सब ठीक है
बस एक भ्रष्टाचार है जिसने यह सब किया है
जिसका जिन्न चुनावों में उठता और लुप्त होता है

मेरे उस दोस्त ने कहा था कि
जो अपने देश में भ्रष्टाचारी और निकम्मे हैं
वो पश्चिमी देशों में जाकर, कोड़ों के जोर पर
गर्धव-स्वन से आकाश में निर्निमेष, नीरवता तोड़ते हैं
कृतांजलित मोदक पाते हैं
मैंने तब भी कहा था कि अपने देश में
कृष्णकार्मिकों पर कोड़े चलाने वाले के हाथ बांधकर
जो पलंग पर सोया था
उसे इतिहास एक दिन बाँध देगी

सुना है कि पलायन के दर्द की अनसुनी कर
कोई दल बार-बार अपनी राजनीति गरम करता है
सुना है उनके लोगों  ने
अमरीकी रेस्तरां में पिज़्ज़ा बनाने और बर्तन धोने की नौकरी
स्थानीय लोगों से छीन ली है
सुना है उन सथानीय लोगों की जीवित ईर्ष्या में विद्वेष मृत है 
मुझे उम्मीद है एक दिन उनका संवाद होगा
विद्वेष की निरर्थकता का आभास होगा

मेरे मालिक को जब से सूचना मिली है
प्रिय के अधिलंबित अधर-मिलन की
मेरे होंठों पर कंटीले तार लगा दिए गए है
जितना विवर्ण मेरा चेहरा होता है
उतना ही उनका मुख-श्री बढ़ता जाता है 
पलायन कर चुके लोगों का यही सच है
कई लोगों को इसमें झूठ दिखाई देता है  
लेकिन जो मुझे सुनाई देता है
वो है प्रेमिका का सुस्वर गीत
‘बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे’


(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, २७ जुलाई २०१४)

Friday, July 18, 2014

नयी जमीन

इन सीलन भरी दीवारों वाले
तमतृप्त वातायनहीन कमरे में
सिलवट भरे बिस्तर, और  
यादों की गठरी वाली इस तकिये पर
एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा चाँद
तीन टुकड़े नेह के, चार टुकड़े मेंह के
फाँकते हुए
असीरी के इस दमघोंटू माहौल में
कविता कहती है कि दम घुट जाए तो अच्छा है

नहीं गाये जाते हैं गीत पिया मिलन के
सदर अस्पताल के बाहर        
जहाँ पन्द्रह हजार में अनावश्यक सिजेरियन
और पैंतीस हज़ार में
बेमतलब गर्भाशय हटाने की तैयारी चल रही है
क्योंकि पेट में दर्द है
रेल रुका है, सड़क टूटा है  
पटना, दिल्ली के रास्ते बंद हैं
और सर्जिकल वार्ड के बाहर पंद्रह कुत्ते
एक साथ हृदयगीत गा रहे हैं
वहीँ भटिंडा का दलाल पचास हजार में
‘सरोगेसी’ से कोख भरवाना चाहता है  
उसी कोख में, जिसमे दर्द है
और कविता का चेहरा
एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा चाँद
फांकते हुए पीला है
काली धंसी हुए आँखों के बाहर
लगता है कुछ गीला है

लेकिन कविता है
कि मुक्त होना चाहती है बस
मरना नहीं चाहती
चाहती है कि आग लग जाए
इस सीलनदार दीवारों में
बिस्तर के नीचे दबे प्रेम पत्रों में
धूप और चाँद में
और राख ही राख हो जाए सब
ताकि कविता को मिले नया देह
और तैयार हो नयी जमीन
वही मानसूनी हरियाली वाली जमीन
जो फैली है सड़क के दोनों ओर
गाँधी सेतु से, झंझारपुर, भपटियाही,
फुलपरास होते हुए बनगाँव तक


(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, १७ जुलाई २०१४)