Monday, December 23, 2013

‘बीच’-ट्रिप टू फ्लोरिडा'

अस्त-व्यस्त अकुलायी लपटें
अकबर का प्रभाहीन स्वर्ण-क्षत्र 
याचनारत श्रद्धालु यत्र-तत्र सर्वत्र
बस इतना ही
ज्वालामुखी मंदिर का विस्तार
उसपर ये कुहासा और ठाड़
कहो क्या है रोमांच भरने को वहां ?

यही सवाल थे
और मैं चुप था
क्योंकि मंदिर में वही है
जो तुमने कहा है
तुम या मैं
यानि मेरे भारत की नयी पौध का एक रूप
जिसने ना अन्न की किल्लत देखी है
ना ‘कंट्रोल’ से वस्त्र पाया है
देखी है तो बस
‘शाइनिंग इंडिया’ की तस्वीरें
फिल्मों में, अखबारों में 
तथा पाया है
देसीपन में व्यक्तित्व-लघुता का भय
और उर-स्फीति  
किसी रोबदार जामे में
हल्के से सिगरेटी धुएं के बीच
धूपचश्मे में नयन कैद (या स्वतंत्र) कर   
मधुरस भरा एक गिलास हाथ में लिए   
आधुनिक भारतीय समाज में बा-फक्र 
‘आधुनिक’ हो जाना

इसीलिए मैंने अस्वीकार नहीं किया
तुम्हारे बीच-ट्रिप के प्रस्ताव को
क्योंकि आधुनिकता की इस आंधी ने  
हमें सिखाया है, ‘छुट्टियों’ का मतलब
थाईलैंड के द्वीप पर, किसी छतरी के नीचे
या किसी ’कबेना’ में सुस्ताते
हाथों में ‘माई ताई’ का भरा प्याला लेना  
प्याले के ‘जमैकन रम’ से जगी
आभा और उर्जा भरी
एक तस्वीर उतार लेना
ताकि हर जगह  
‘वाओ’, ‘क्यूट’, ‘ब्यूटीफुल’, ऐडोरेबल’ की बरसात हो
और जीत हो
दोस्त के गोवा ट्रिप पर
‘माई ताई’ की जीत हो ‘फेनी’ पर     

अस्वीकार कैसे करता मैं?
वो मेरी आधुनिकता की प्रथम परीक्षा थी
तभी झट से हामी भर दी थी मैंने
‘फॉर अ बीच-ट्रिप टू फ्लोरिडा’
वही नीले पानी, नीले मेघ
अनगिन ‘बीचों’ का फ्लोरिडा
और पूछा था पता एक मीत से
मखमली रेत वाली एक ‘बीच’ का  
ताकि प्रिय के नाज़ुक पैरों को
छू ना ले कोई कंकड़
और मेरे सीने जा ना लगे, कोई पत्थर

अब इस ‘बीच’ पर आकर, प्रिय  
शिकवा क्यों कि ‘न्यूड’ ‘बीच’ है
‘बीच’ ‘न्यूड’ नहीं है
लोग ‘न्यूड’ है 
आधुनिक बनने की दौड़ में
वस्त्र त्याग कर
मैं ‘न्यूड’ हूँ    
पर मुझमें क्यों होता तुम्हे
असभ्यता का भान?
शायद हमने पाया नहीं अबतक
पूर्ण आधुनिकता का ज्ञान

उदासी मत बढाओ
क्योंकि मैं कुंठित नहीं हूँ
इस ‘न्यूड बीच’ पर
तुम्हारे वस्त्रावृत तन को देख
या अंतर्मन की इच्छा है मेरी  
कि मेरी तरह आधुनिकता की होड़ में
नग्नदेही हो जाओ तुम भी
पुराने तर्कों के साथ
कि यही तन का आदि-रूप है
जिसमे अहं क्षीण है
आत्मा निस्तीण है

लेकिन तुम खड़ी हो, स्तब्ध
आधुनिकता और अत्याधुनिकता के द्वन्द में
पर यह द्वन्द तुम्हारा नहीं   
हमारी पौध का है
जो भाग रही है इस अंधी दौड़ में
कभी ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए
कभी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए

प्रिय!
सच कहूं तो देना वस्त्र त्यज
था नहीं मेरे लिए भी सहज
इसीलिए क्यों ना  
इसी ‘बीच’ पर धो डालें  
हम अपनी इस ‘आधुनिकता’ का रंग
जो पाया है हमने अंधी दौड़ से
और हो जाएँ वही
जो हम हैं


(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, २२  दिसम्बर २०१३)

Monday, December 16, 2013

महाशून्य

यूँ ही चलती जीवन-यात्रा
जन्म से मृदा-मिलन तक
कभी हर्ष, कभी विषाद से भरी
विस्मय और अनिश्चितता पर अड़ी 
क्षण में जलती, क्षण में बुझती  
उमंगों और आशाओं की नैया खेती
एक अनुत्तरित रहस्य बन
ह्रदय के अंतिम धड़कन तक  
उद्वेलित करती हमारे मन को
यही जानने के लिए
कि ये जीवन क्यों है?
ये जीवन किसलिए है ?

कभी धर्म का अवलम्ब पाकर
कभी विज्ञान का संग पाकर
मन कूद जाता है  
उस महाशून्य का पता पाने
जिसकी अंतर्धा का
कब से हो रहा अनुसंधान
फिर भी अज्ञात है
जीवन का ज्ञान
जो, धर्म और विज्ञान
अपनी व्याख्याओं से
पा चुके हैं एक किनारा
और इनके उनके पास जाकर
पता नहीं चलता
कहाँ छुपा है सत्य सारा

रहस्य निवर्तमान है जबकि
विज्ञान ने संदेह से परे
निर्धारित किया है
गुरुत्व बल के आधिपत्य को
ब्रम्हांड की आयु को
उसकी उत्पत्ति के घटनाक्रम को
उसकी प्रसृति और संकुचन को
विखंडन और संलयन को
और यह भी कर दिखाया कि जीवन
स्त्री और पुरुष का संयोग भर नहीं
पूर्वनिर्धारित दैवीय आशीर्वाद नहीं
‘प्यूरीन’ और ‘पिरिमिडीन’ के संकेतों में आबद्ध 
प्रतिपल अपनी श्रेष्ठता को अभियानरत
अनश्वर उत्प्रेरक के मानिंद
खींचता जा रहा है मनुष्य
पीढ़ी दर पाढ़ी
अपने जीवन को
एक अनिश्चित समय की यात्रा पर
लेकिन मन प्रत्यागत हो
उसी आदि-बिंदु पर
उलझ जाता है उसी ‘ब्लैक होल’ में
उसी ‘बिग बैंग’ में
जिसकी ब्रम्हांडीय आतुरता को
समझ नहीं सका कोई आज तक

और धर्मों के अपने-अपने आख्यानों में
साम्य है,
उस परमेश्वर के अस्तित्व में  
जिसे सदेह ना देखा, ना सुना है
आस्था की डोर से बंध हमने
उसकी शक्ति को भजा और गुना है
साम्य है,
स्वर्ग और नर्क के रास्तों में
तथा इच्छित उद्देश्यों के तहत किये
कृत्याकृत्य के मीमांसा व अमीमांसा में
स्वर्ग प्राप्ति की जगायी आकांक्षा में
साम्य है,
अपनी-अपनी परात्परता में
अपने परमेश्वर के लिए प्रतिबद्धता में
उस ढाँचे के समरूपता में
जो देता है,
मन में जागे हर जिज्ञासा का पता
उसी लोक में,
जो इस जीवन में नहीं मिलता
जो देता है,
जीवन में प्राप्त दुःख का पता
उसी लोक में,
जो इस जीवन में नहीं मिलता
और मन पूछता ही रह जाता है
उस सर्वकल्याणी ईश्वर से
कि जगत-पिता होकर भी
किस तुष्टिकरण के निमित्त यह संसृति?
जहाँ क्लेश-क्लांत है उनके संतानों की गति

इन्हीं प्रश्नों के बीच दिखता है
धर्म का व्यापक लक्ष्य,
मानव कल्याण के लिए
दुःख-दग्ध निस्सहाय
मन के व्योम में   
दुःख-लभ्य दीप-कली से
जीवन उत्थान के लिए
चाहे परमेश्वर अभिदर्शन हो ना हो
चाहे परमेश्वर-मर्शन हो ना हो

फिर  कौंध उठता है
मन में विज्ञान
परखनलियों से
एक ध्वनि सी आती है
जो उत्साहित हैं अपने रसायनों से
उनकी व्याधिहारी शक्ति से
जो दिखाते अपना ईश्वरीय रूप
जब रोगी तन में जाकर
भिड़ते वो आयुवर्धन को
या किसी मृत से शरीर में
फूंकते नवजीवन को
ईश्वर और विज्ञान के
इसी दो पाटों के बीच
महाशून्य को खोज में उद्विग्न मन
एक नियत आवृति से जाता घूम-घूम
और मैं अपने हाथों को चूम-चूम
यत्न करता हूँ,
नव यौगिक निर्माण का    
कभी विज्ञान से, कभी महाशून्य से
पी लेता हूँ जीवन-रस की दो बूँद
और फिर उसी महाशून्य की गहराइयों में
खो जाता हूँ आखें मूँद


(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, १५ दिसम्बर २०१३)

Sunday, December 1, 2013

हड़प्पा

काल-चक्र  के  अवर्त  में,  
घिर जो हुआ  था  वीरान    
किसे ज्ञात था, रहेगा संवृत,
भू-कुक्षि   में वो  निशान
जिसमे निभृत, सभ्यता की
होगी  एक   ऐसी  कहानी
तार-तार  जिसके सुलझाने,
उलझेंगे  दुनिया के  ज्ञानी  
और करते  जिनका संधान
कभी नहीं हम  थक पायेंगे
परतें उसकी खोल-खोल के
अथक स्तव-रव  ही गायेंगे

लुप्त हुआ कूजन-कोलाहल,
जाने किसने थी क्या ठानी
और उठा था वहां से जीवन,
सच कहते दुनिया  ये फानी
निवृत्त हुआ सर्वस्व मृदा में,
रही  अस्थियाँ  अवशेष बन
विध्वंस के साक्षी निलयों में,
पसरा  था  खाली  सूनापन
किसे पता ये, प्रलय-याम था
या  धधकी  कोई  चिनगारी
स्रस्त  हुए  उत्कर्ष-श्रृंग  से,
सकल सभ्यता  ही थी हारी

समय-पराजित  हुई सभ्यता,
पर  ना  घटी उसकी उंचाई 
अनावृत वो  भूत हुआ  जब,
सबकी आँखें  थी  चौंधियाई
कारीगिरी से भरा शिल्प था,
जाने  कैसे  थे   दस्तकार  
बीते  हजारों  वर्ष   लेकिन,
हिल ना सकी उनकी दीवार
क्या धातुकला की निपुणता,
कितना उन्नत उनका विज्ञान
परिगूढ़ लिपि कैसी  उनकी,
नहीं  सका  कोई  पहचान   
    
और  नग्न नृत्यांगना  की,
रहस्य  भरी  है  निशान्ति
कांस्य सांचे  में  ढल  भी,
जिसकी ना मलिन हुई कांति 
प्रवर   नगरवधू  वो  कोई
या अदा-व्याप्त मधु की रानी
कवरी-बाला   संतप्त   कोई
या  रूपवती  वो अभिमानी
जाने  ऐसी  कितनी पृच्छा,
जिसके उत्तर से सब वंचित
विस्तृत भूभागों  में कब से,
जाने अब भी है क्या संचित

किसे ज्ञात कब दुनिया पाए,
इसमें गर्भित बातों का ज्ञान
पर   इसमें   संशय  नही,
धरती की वो सभ्यता महान
अवलोक जिनका ध्वस्त नगर,
जब हो जाता इतना विस्मय
सोचें  कैसा  जीवन उनका,
बीता   होगा  कर्म-तन्मय
कहती हमसे, हो कर्म गुणी,
तो  होती  ही, उसकी जय
चाहे  गर्त   में   दबाकर, 
कितना भी क्षय करे समय  

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३० नवम्बर २०१३)

अवर्त = तूफ़ान, मुश्किल समय 
संवृत = संरक्षित, ढँका हुआ 
भू-कुक्षि = पृथ्वी की कोख 
निभृत = छुपी हुई 
स्तव-रव- प्रशंसा के  शब्द
निलयों = घरों 
प्रलय-याम = प्रलय का पहर 
स्रस्त = गिरा हुआ 
कवरी-बाला- बंद चोटी वाली लड़की 
पृच्छा = जिज्ञासा