Sunday, April 21, 2013

बहुरुपिया

दीवार पर टंगे दर्पण में
और फिर अपने मन में 
देखेंगे खुद को  हो गंभीर 
तो दिखेगी अपनी अलग-अलग तस्वीर 
दीवार का आइना दिखाता है 
सिर्फ अपना बाह्य शरीर
पर मन का आइना दिखाता है वो चेहरे 
जिसे देख खुद को होता पीर 
हमें देख जो दुनिया मुस्कराती है 
शायद सब अच्छा हमारे में पाती है
पर पूछें ह्रदय से तो करेगा स्वीकार
कहाँ मुक्त हो पाते हैं हमसे सांसारिक विकार
मद, लोभ, काम, झूठ, क्रोध  
सबका अपने अन्दर हमें होगा बोध 
इन रोगों से निकल जाने की होती है चाहत 
मगर दुनिया नहीं देती इसकी इज़ाज़त

सच बोलने को जब होठों पर होती जुम्बिश 
आ ही जाती है कई तरह की बंदिश 
चेहरे देख, काया निहार
भुजाओं का देख आकार  
लोगों का सुन आग्रह, दुराग्रह 
फिर अपने मन का पूर्वाग्रह 
सच, सच नहीं रह पाता
सच झूठ में है बदल जाता 
शब्द बदल जाता हैस्वर बदल जाता है 
सच निकलने से पहले हमारा दम निकल जाता है  
फिर भी चेहरे पर डाले झूठा आवरण, पथ पर
करते उद्घोष खुद को कहते हम सत्यंकर 
गाते  हैं  धर्म-गीत, देते हैं उसके उपदेशों पर जां
कोशिश करते कि असल रूप हो ना हो उरियां  
साबित आखिर कर ही देता है  
सच के सामने कितना मजबूर है इंसान  

परम सत्य को ढूँढने जब जाते हम निकल 
तो लगता काश! सच से होती बातें दो पल 
मगर ये मृत्यु दगाबाज़ 
होता नहीं जीते जी किसी से हमआवाज़
वेद-पुराण सब यही कहते है
सत्य सबसे बली है
सब पढ़कर भी हम 
बने हुए कितने हम छली हैं
क्योंकि सत्य को पेश करना जोड़-तोड़ कर 
वैसा ही है जैसे जाना सत्य छोड़ कर 
हमारे अस्तित्व और असत्य का है अटूट बंधन 
बिना क्लेश और पीड़ा के नीरस ना हो जाए ये जीवन 
ताउम्र स्वर्ग की चाहत का रह ना जाए कोई अर्थ 
जीवन को शान्ति में गुज़ार हो ना जाए समय व्यर्थ 
इसीलिए भले ही दुनिया रहे कोसती
काम क्रोध मद लोभ से  टूट ना पाती हमारी  दोस्ती

एक चेहरे के भीतर सौ चेहरे 
क्या गोरे क्या काले क्या भूरे 
छद्म हँसी, छद्म प्यार, छद्म आह 
छद्म की इनायत भरी निगाह 
धर्मघरों में घूमते पापी सरेआम 
स्वर्ग के डाकिये बन देते हैं पैगाम 
अपने ही हाथों से पौधे में प्राण भर 
उसी हाथों से देते है पौधे को कुतर 
अपने आलाओं के नाम जपते पुरवेग 
रखते पैरहन में एक चमचमाता तेग 
विज्ञान कहता है हम निन्यानवे फीसदी सम 
इसलिए रह ना जाए ये भ्रम 
चाहे ढूंढों समुद्र में गोता मार 
या ढूंढों जंगल-झाड़
पूर्ण सत्य नहीं मिलने वाला 
हम बहुरूपियों का ही होगा सदा बोलबाला 

(निहार रंजन, सेंट्रल, २० अप्रैल २०१३ )

Monday, April 15, 2013

कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!


ये मेरी मंजुल-मुखी,
खो ना जाए इस तमस में
इसलिए है छुपा रखा
मैंने इसे पंजर-कफस में
संग मेरे  स्वप्न में
संग है हर श्वास में
अरुणिमा सी मुदित करती
मेरे मन आकाश में
घूमती रहती है निशदिन
सींचती मुस्कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

जादुई इसकी छवि है
दहकते से इसके अधरज
देख जिसको मन ने बोला
कौन जाए इसको त्यज
मधुरिमा संसार की
संसार की रानाइयां
संसार की अटखेलियाँ
संसार की रुस्वाइयां
झनकती पाजेब इसकी
करती गुंजित कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

ये मेरी चंचल सखी
करती मुझे उद्भ्रांत है
और फिर चुपके से छूकर
कर देती मन शांत है
ये जो इसके नाज़-नखरे
और ये पुतली का जाल 
अलकों-पलकों की दुश्वारी
उस पर ये वाचाल
चमका देती मन में सूरज
हो आशा अवसान तो
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

ना गलबांही, ना आलिंगन
ना मेरे अधरों से चुम्बन  
मांगे बस बरसों से मुझसे
हर पल का निःस्वार्थ समर्पण 
फिर मेरे प्रतप्त ह्रदय को
करती है शीकर से सिंचन
मुस्काकर जब वो कह देती
धृतिमान हो! ‘करना करग्रहण’
ठहरे मेरे मन में फिर से  
ले आती तूफ़ान वो   
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ अप्रैल २०१३) 

Wednesday, April 10, 2013

गामवाली


(कोसी के धार-कछार के मध्य गामवाली की धरती)

 इब्तिदा चचा ग़ालिब के इस शेर से -

लिखता है 'असद' सोज़िशे दिल से सुखन-ऐ-गर्म  
ता रख ना सके कोई मेरे हर्फ़ पर अंगुश्त 

[अपने ह्रदय ताप से 'असद' इतने दहकते शेर लिखता है  
ताकि उन शब्दों पर कोई उंगुलियां न उठा सके ]

गामवाली


वो मेरे साथ, हाथों में हाथ लिए
मंद अलसाये डग भरते  
शानों पर लट बिखरा
होठों पर नीम-मुस्की लिए
सरेराह नहीं चल सकती

वो मेरे साथ ‘हाई-पॉइंट’ जाकर
अपने हाथों में थ्री वाइज मैन लेकर  
मेरे हाथों में रेड हेडेड स्ल्ट्स देकर  
एक ही घूँट में अपने-मेरे जीवन-विष का
शमन नहीं कर सकती

ना ही मेरे साथ ‘लकी लिप्स’ पर सारी रात थिरक 
‘हाई पॉइंट’ के बंद  होने वक़्त 
मदालसी आँखें और उत्ताप श्वास के साथ
कानों में शहद भरी ध्वनि लिए 
प्रणय निमंत्रण दे सकती है 
और इनकार पाकर, निर्विण्ण मन से   
मुझे समलैंगिक कह सकती है

उसे मधु-प्लुत होने की इतनी परवाह नहीं
कि अपने बच्चे को छाती से आहार ना दे सके
फिर दो साल बाद तलाक देकर
उसे पिता के पास धकेल,
कीमती कार और तलाक के पैसे लेकर
इस तरह दूर हो जाए
कि १९ साल तक याद ना करे  (शायद आजीवन!)

उसे इस तरह उन्मुक्तता की चाह भी नहीं
कि पैंसठ बरस की उम्र में सिलिकॉनी वक्षों के दम पर
कोई मेनका बन, कोई घृताची बन
किसी विश्वकर्मा को ‘पीड़ित’ करे
बहामास  जाने वाली किसी ‘क्रूज’ पर
‘वायग्रा’ उन्मादित पुरुष के साथ
परिरंभ करे, केलि-कुलेल करे

क्योंकि वो गामवाली है!

गामवाली,
यानि एक भारतीय नारी
जनकसुता सीता की मिटटी पर जन्मी
मिथिला की बेटी है
त्याग और अदम्य जीवटता की प्रतीक है

ये गामवाली बचपन से धर्मभीरु है
इसने ब्रम्हवैवर्तपुराण के आख्यान सुने है
कुंभीपाक के सजीव से चित्रों के दर्शन किये है  
धर्म और अधर्म का ज्ञान पाया है
विद्यापति के गीत गाये हैं
और पुष्पवती होते ही
स्वामी के बारे में सोचा है
उसे पाया है, उसे पूजा है

यही उसके जीवन का आदि और अंत है
कोई नारीवाद नहीं है उसमे
किसी बराबरी की चाह नहीं है उसमे
उसमे बस त्याग है,
आपादमस्तक दुकूल में छिपा
सलज्ज चेहरा है, पुरनूर आँखें है  
और यावज्जीवन की अभिलाषा
माँ बनकर, बहन बनकर, दादी बनकर
नानी बनकर, भाभी बनकर
कि उसके पास जो कुछ है वह बाँट देना है  

सच्चरित्रता का पालन किये
बिना झूठे वादे किये,
बिना झूठे बोल बोले
बिना झूठे आस दिए,
बिना अपनी गलत तस्वीर पेश किये
एक बंद कमरे में, ढिबरी की रौशनी में
रात भर अन्धकार पीती है
सुबह अपने देह पर धंसे काँटों को ढँककर
मुझसे मुस्कुराकर बात करती है
कोई नहीं जानता कितने कांटे हैं उसकी देह में
दर्द और ताप का शमन कोई सीखे तो उस गामवाली से

इसलिए प्रसूता होकर भी
मुस्कुराते चेहरे के साथ
खेत में वो काम करती है
और अपने छोटे बच्चे को,
दांत का दंश लगने तक,
छाती की आखिरी बूँद तक पिलाती है
और हो सके तो किसी भूखे बच्चे को,
अपने शीरखोर बच्चे से माफ़ी मांग,
छाती से लगा लेती है
उसे अपने पुष्ट छातियों की परवाह नहीं है.

उस गामवाली का देह
सुख के लिए नहीं है
उसकी संतानें हैं,
पति है, समाज है
रामायण है, गीता है
सुख चाहती वो इन्ही से,
सुख मांगती वो इन्ही से
इसलिए संयोगिनी या वियोगिनी होना
उसके लिए सम हैं
वह वासना के व्याल-पाश में 
लिपटकर रह सकती है,
उसके विषदंत तोड़ सकती है
उससे निकल सकती है
लेकिन मुझसे नहीं कह सकती
“वांट टू गो फॉर ‘डेजर्ट’ “

इतना सारा धन, प्यास, और झूठ
मानवीय संवेदनाएं ना छीन ले उससे
कुल्या होना न छीन ले उससे
धन्या से धृष्टा ना बना दे उसे
स्वकीया से परकीया ना बना दे उसे
इसीलिए वो अर्थ और काम को ताक पर रख
पैसठ बरस की उम्र में
धर्म और मोक्ष ढूँढती है
उसकी पहचान उसके देह से नहीं
उसके त्याग से है

इसी वजह से गामवाली पर
सरस गीत लिख पाना असंभव है  
उसपर कविता लिख पाना मुश्किल है  
त्याग की कवितायें बाज़ार में नहीं बिकती
त्याग से अवतंसित स्त्रियों का ये बाज़ार नहीं
बाज़ार में बिकती है रम्भा, मेनका
मदहोश करती अर्धनग्न सैंड्रा और रेबेका
पर मेरी रचनाओं में गामवाली जिंदा रहेगी
आखिर दूध का क़र्ज़ कौन उतार पाया है.

 (निहार रंजन, सेंट्रल, ८ अप्रैल २०१३)

(समर्पित उस गामवाली के नाम जिसने दूधपीबा वयस में एक दिन मुझे भूखा देखकर अपनी छाती से लगा लिया था. आभार उन तीन मित्रों का जिनके अनुभव इस रचना में हैं) 
 
*
गामवाली - गाँववाली 
हाई पॉइंट – एक मदिरालय का नाम
थ्री वाइज मैन – एक अल्कोहलीय पेय का नाम
रेड हेडेड स्ल्ट्स - एक अल्कोहलीय पेय का नाम
लकी लिप्स - क्लिफ रिचर्ड का मशहूर गीत
क्रूज – सैर सपाटे के लिए जाने वाला पनिया जहाज 

Wednesday, April 3, 2013

आशा का दीप

आशा का दीप


लौ दीप का अस्थिर कर जाता है
जब एक हवा का झोंका आता है
पल भर को तम होता लेकिन
फिर त्विषा से वो भर जाता है
इस दीप की है कुछ बात अलग
यह दीप नहीं बुझ पाता है

मैं तो स्थिर हो चलता हूँ
पर हिल जाता है भूतल
डगमग होते हैं पाँव मगर  
कर मेरे रहता दीप अटल    
लौ घटती-बढती इसकी लेकिन
यह दीप नहीं बुझ पाता  है

श्रमजल से सिंचित यह प्रतिपल
जाज्व्ल्यमान यह दीप अचल
बाधा के पतंगों से लड़कर
मुस्काता रहता है अविरल
पतंगा आता है, मर जाता है
पर दीप नहीं बुझ पाता  है

(निहार रंजन, सेंट्रल, २९ मार्च २०१३).