Saturday, February 23, 2013

ज़िन्दगी के रंग

ज़िन्दगी के रंग 

गाँव के अन्दर, शहर के बीच और देश के बाहर 
कभी ठेस खाकर कभी प्यार पाकर 
ज़िन्दगी की राह पर चलते सँभलते 
कभी लड़खड़ाते , कभी ठीक चलते 
ज़िन्दगी ने जीवन के कई रंग देखने को दिए 
ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सीखने को दिए 

घूंघट गिरी थी, वो उठ गयी फिर हट गयी 
लीपा सिन्दूर हटा और फिर ज़ुल्फ़ हट गए 
माँ का दूध हटा , बोतलों ने जगह ली और फोर्मुले आये 
रिश्तों की परिभाषाएं बदली, फूल हावी हो गए ज़िन्दगी में 
अस्तपताल में दम खींचते बाप को एक गुच्छा फूल काफी था सुधि लेने को 
और मैं ठेठ गंवार!  हमने तो बस फूलों को तोडना जाना है 

ना  शादी की रस्में, न उनका प्रयोजन 
कोई जन्म ले  तो ले,  भगवान तो देख ही  लेंगे उसे 
और ज़िन्दगी की रफ़्तार ऐसी तेज़ 
कि ज़िन्दगी दौड़ते-दौड़ते बीच में ही गुम  हो गयी कहीं 
पैकेट  में खाना, एक हाथ में पेय और दूसरा  हाथ स्टीयरिंग पर 
१०० किलोमीटर की रफ़्तार में दौडती ज़िन्दगी 
और तभी कौंध जाता है यादों में  चाँदनी चौक  का वो चाटवाला 
शाहजहाँ रोड का वो तिवारी पान भण्डार 
और खान मार्किट में  बरिस्ता की कॉफ़ी 
परखनलियों में रसायनों का बदलता रंग 
यार दोस्तों का मजमा और बेफिक्री के दिन 
और उससे भी पीछे धान के वो हरे पीले खेत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत 

पर रफ़्तार की ज़िन्दगी ने ज़िम्मेदारी दी
रफ़्तार की ज़िन्दगी ने आत्मविश्वास दिया 
ज़िन्दगी को उन्मुक्त होकर बहते रहने 
प्यास हरते रहने की तालीम 
कोई ज़िन्दगी पूरी अच्छी नहीं,
कोई ज़िन्दगी बिलकुल बुरी नहीं  
ज़िन्दगी की प्यास तो कभी बुझती नहीं 
ज़िन्दगी अच्छा या बुरा बनाना तो अपने हाथ में है 
धीमे चलकर संतुलन बनाना आसान है 
पर रफ़्तार  में संतुलन बना के चलना एक सीख 

पर जो छूट गया बहुत पीछे वो है  मेरा गाँव
उसकी अलमस्त हवा, रेडियो पर बजता संगीत 
आटे के  मिल की हर शाम वो  पुक-पुक 
और शाम को लौटते बैलों का गले मिला कर चलना  
 स्कूल से लौटने के वक़्त गली के मुहाने पर खड़ी मेरी  माँ 
और हुरदंग मचाते लड़कपन के साथी 
लालटेन की रौशनी में  कीट-पतंगों के साथ ज्ञान अर्जन की जंग
कैलकुलस की  छान बीन में बावन पुस्तिकाओं के रंगे पन्ने 
और अपने पतंगों के लिए  हाथ से मांझा किये धागे 
जीते पूरे पांच सौ कंचे 

और अब वही गाँव की मिटटी, 
जिस का कण-कण मेरे रुधिर होकर बहता है, 
वापस लौट आने को कहती  है
और सेंट्रल साइंस लाइब्रेरी के बाहर का चायवाला
२/३ के लिए पूछता है बार बार 
पर कोसी नदी की घाट से दूर कूपर नदी की घाट बैठ 
मैं कविता लिखता जा रहा हूँ 
मैं कवि  बन गया हूँ!

(निहार रंजन, सेंट्रल, २३ फ़रवरी २०१३  )

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?



महान निर्देशक गुरु दत्त के फिल्मों का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ. उनकी मशहूर  फिल्म 'प्यासा' कई बार देखी है.  फिल्म के  आखिरी दृश्य में वो कोठे पर पहुँच वहीदा रहमान को बुलाते हैं और "साथ चलोगी?" प्रश्न के साथ   फिल्म का समापन हो जाता है.  यह  कविता उसी  फिल्म प्यासा के आखिरी दृश्यों प्रेरित है और इस महान कलाकार को समर्पित है.

प्रिये तुम चलोगी साथ मेरे?

उबड़-खाबड़ कंकड़ पत्थर, यही मार्ग का परिचय है
ना पेड़ों की छाया ना पनघट चलो अगर दृढ निश्चय है   

हम नहीं ख्वाब दिखाने वाले इन्द्रलोकी काशानों के
अपनी बगिया में नहीं मिलती खुशबू जूही बागानों के

ना रोशन हैं राहें अपनी, पल पल ही टकराना होगा
गिरते उठते गिरते उठते इस पथ पर तुम्हे जाना होगा   

भूखे प्यासे दिन गुजरेंगे,  भूखी प्यासी रातें होंगी  
तेज हवाएं भीषण गर्जन साथ लिए बरसातें होंगी

जीवन ताप परीक्षा होगी, होगी असलियत की पहचान
निखर कर बाहर निकलोगी गर हो तुम स्वर्ण समान  

अपने हिस्से में कुछ दागदार फूल है, कर दूं अर्पण?
पर अन्दर अथाह प्रेम है, खोलो पट देखो मेरा मन   

इस अनिश्चय के डगर में, चलोगी पकड़ तुम हाथ मेरे ?
आज कह दो तुम प्रिये गर चल सकोगी साथ मेरे

निहार रंजन, सेंट्रल, २-२३-२०१३ 



Sunday, February 17, 2013

कवि का सच

कवि का सच 


लोग कहते हैं 
कविता झूठी है 
कल्पना का सागर है 
जिसका यथार्थ से कुछ वास्ता नहीं

लोग कहते हैं  
कवि कविता की आड़ में अपना भड़ास निकालते हैं
अपनी  ज़िन्दगीके अँधेरे को छदम रूप देकर कविता का नाम देते है 
अपनी असहायता को  झूठे शब्द देकर हुंकार का नाम देते हैं

लोग कहते हैं 
कविता ने  झूठी आस दी है 
उजालों  के स्वप्न दिए है     
दिल को खुश रहने का ख़याल दिया है, पर हकीकत?

लोग कहते हैं 
कवि रसिया है 
कविता के कंधे पर धनुष रख आखेट करता है 
अपनी अतृप्त इच्छाओं को दुनिया के दर्द कहता है 

लोग कहते हैं 
कविता बिन दर्द हो ही नहीं सकती , 
रामायण देखो, "ग़ालिब" का दीवान देखो 
"मजाज़" के टूटे अरमान देखो 

लोग कहते हैं 
कविता में शराब की बातें है 
कविता में चाटुकारिता है 
कविता हारे हुए (bunch of losers) पढ़ते है 


लोग कहते हैं 
कविता बेकार है 
दुनिया में सब कुछ अच्छा है 
बस नजरिये में फर्क की ज़रुरत है 

लेकिन काश!!

कविता सब समझ पाते 
सब यह समझ पाते कि
कवि ह्रदय का विस्तार निस्सीम है 
इसलिए उसमे अपरिमित  दर्द है 

सब यह भी समझ पाते  
जब दिल्ली में असुर नाचते है 
तो कवि ह्रदय नुकीले जूतों  से रौंदा जाता है 
और दर्द की वेदना वैसी ही होती है जैसे किसी स्व का हादसा हो 

हाँ दुनिया अच्छी है 
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में उजाले है 
आराम है, पैसे है और दुनिया बदलने का झूठा दंभ है 
अब किसी को रोटी नहीं मिलती तो मेरी नींद क्यों जाए 

लेकिन अपनी ज़िन्दगी के उजालों से हट के देखता है कौन 
रंगीनियों की क्षणिकता और श्वेत श्याम के स्थायित्व को देखता है कौन 
न्यूयॉर्क की गलियों में वक्षोभ से औरत की कीमत होते देख दुखता है कौन 
वही कोई "शराबी", "पागल", "हारा हुआ" कवि  

कौन कहता है  दुनिया में दर्द नहीं है 
लेकिन दर्द को देखने की लिए आँखें चाहिए
उनमे ख़ास ज्योति चाहिए 
एक ख़ास जिगर चाहिए 

और वो रौशनी तभी आती है 
जब सब अपने स्वजनों की माया पृथक कर 
अपने प्रियतम के आलिंगन से विमुक्त हो 
उस असहाय को भी देखें जिसका आंत जल रहा है 

वैसी ज़िन्दगी भी देखे 
जिसे समय का चक्र एक पल में लूट लेता है 
और एक पल में चहचहाती ज़िन्दगी में वीराना आ जाता है 
सालों की समेटी ख़ुशी एक पल में काफूर होती है 

लेकिन इसके लिए चाहिए मन, ह्रदय का विस्तार 
दृगों को वही ख़ास ज्योति 
और अपने स्वार्थ से इतर एक दुनिया का एहसास 
जहां घोर अँधेरा पसरा है 

और मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि 
ना मुझे मुहब्बत ने ह्रदय चाक किया है 
ना मेरी दुनिया में अँधेरे हैं 
और ना ही शराब का मैं गुलाम हूँ 

फिर भी दिल में  दर्द है 
क्योंकि दर्द जीवन का सच है, स्थायी या अल्पकालिक 
क्योकि "दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त"
क्योंकि ह्रदय कवि का है, आहनी नहीं 

(निहार रंजन, सेंट्रल, १७-२-२०१३ )










रात की बात



रात की बात

जब आसमाँ  से गुम हो निशाँ आफताब के
हो माह में डूबा ज़माना, रात को आना

पाओगी सितारों की झलक, जुगनू भी मिलेंगे
उस पर यह मौसम सुहाना, रात को आना

जो सादादिली तुझमे, शोखी है, अदा है
हो जाए न ये जग दीवाना, रात को आना

सौ लोग है हाजिर लिए खंज़र वो अपने हाथ
उनसे जरा खुद को बचाना, रात को आना

कुछ हर्फ़ हैं जो अब तलक उतरे ना हलक से
आज गाऊँगा दिलकश तराना, रात को आना  

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१०-२०१२ )

Aftaab  = Sun
Maah   = Moon
Shokhi  = Playfulness
Harf    = Words
Halaq   = Throat



Saturday, February 2, 2013

जवाब पत्थर का

पत्थर से गुफ्तगू
पत्थर से मैंने सबब पूछा
क्यों इतने कठोर हो
निष्ठुर हो, निर्दय हो  
खलनायकी के पर्याय हो

कभी किसी के पाँव लगते हो तो ज़ख्म
कभी किसी के सर लगते हो तो ज़ख्म
और उससे भी दिल न भरे तो अंग-भंग
क्या मज़ा है उसमे कुछ बताओ तो?

तुम दूर रहते हो तो सवाल रहते हो
पास तुम्हारे आता हूँ तो मूक रहते हो
तुम्हारे बीच आता हूँ तो पीस डालते हो
तुझपे वार करता हूँ तो चिंगारियाँ देते हो  

आज मेरी चंपा भी कह उठी मुझसे “संग-दिल”
अपनी बदनामी से कभी नफरत नहीं हुई तुम्हे?
काश! लोग तुम्हें माशूका की प्यारी उपमाओं में लाते
उनके घनेरी काकुलों के फुदनों में तुम्हें बाँध देते

उनके आरिज़ों की दहक के मानिंद न होते गुलाब
पत्थर खिल उठते जब खिल उठते उनके शबाब
मिसाल-ऐ-ज़माल भी देते लोग तो तेरे ही नाम से
हो जाता दिल भी शादमाँ तेरे ही नाम से

ये सब सुनकर पत्थर का मौन गया टूट
और मुझे जवाब मिला-
"ताप और दाब से बनी है मेरी ज़िन्दगी
मैं कैसे फूल बरसा दूँ प्यारे!"

निहार रंजन, सेंट्रल, (२-२-२०१३)

सबब = कारण 
संग = पत्थर
काकुल= लम्बे बाल
आरिज़ = गाल
ज़माल = रौशनी
शादमाँ = प्रसन्न, आह्लादित